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________________ निरुद्धगं वावि न संक्षिप्त में कहने योग्य बात को व्यर्थं ही नोइवेलं वएज्जा | आवश्यकता से अधिक बोलना उचित नहीं हैं । दीहइज्जा | बढ़ावा न दें । — सूत्रकृताङ्ग ( १/१४/२३ ) तुमं तुमंति अमणुन्नं, सव्वसो तं न वत्तए । ऐसे बच्चन नहीं बोलना चाहिये, जिसमें तू-तू शब्द जैसी अभद्रता हो । वयणं विण्णाणफलं, जइतं भणिएऽवि नत्थि किं तेण । वचन की फलश्रुति अर्थज्ञान है । अतः जिस वचन के बोलने से अर्थ का ज्ञान न हो तो उस 'वचन' से क्या लाभ ? - विशेषावश्यक भाष्य ( १५१३ ) परुसं कडुयं वयणं वेरं कलहं च उत्तासणं व हीलणमप्पियवयणं मर्म - छेदी, परुष, उद्वेगकारी, कटु, वैरोत्पादक, और अवज्ञाकारी वचन अप्रिय वचन है । दो की बातचीत के बीच में न बोलें । १६ - सूत्रकृताङ्ग ( १/१४/२५ ) नो वयणं फरुसं वइज्जा । परुष ( कठोर ) वाणी न बोलें । Jain Education International 2010_03 भय कुणइ । समासेणं ॥ कलहकारी, भयोत्पादक, - भगवती आराधना ( ८३२ ) नो अंतराभासं भासिज्जा । - आचाराङ्ग ( २/१/६ ) - आचाराङ्ग ( २/३/३ ) इमाई छ अवयणाइं वदित्तएअलियवयणे, हीलियवयणे खिसितवयणे, For Private & Personal Use Only [ २४१ www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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