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________________ पायेगा ? जो आत्मा और अनात्मा का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वही संयम पथ पर गति कर सकता है । अण्णाणमयो जीवो कम्माणं कारगो होदि । अज्ञानी जीव ही कर्मों का कर्त्ता होता है । - दशवेकालिक (४/१२-१३ ) अज्ञानी जीव का संग नहीं करना चाहिये । अलं बालस्स संगेणं । - आचारांग ( १/२/५ ) अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणुगच्छइ । जब अन्धा अन्धे का मार्गदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट पथ से दूर भटक जाता है । -- समयसार ( ६२ ) -सूत्रकृताङ्ग ( १/१/२/१६ ) जहा अस्साविणि गाणं, जाइ अंधो दुरुहिया । इच्छइ पारमागंतुं, अंतरा य विसीयई ॥ Jain Education International 2010_03 अज्ञानी साधक उस जन्मांध मानव के समान है, जो छिद्रवाली नौका पर आरूढ़ होकर नदी के तट पर पहुँचना चाहता है; किन्तु किनारा आने से पूर्व ही मध्य - प्रवाह में डूब जाता है । बाले पापेहि मिज्जती । अज्ञानी पाप करके भी उस पर अभिमान करता है । -सूत्रकृताङ्ग ( १/१/२/३१ ) - सूत्रकृताङ्ग ( १/२/२/२१ ) जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाइ कम्माई करेन्ति रुहा । ते घोररूवे तमसिन्धयारे, तिव्वाभितावे नरगे पडन्ति ॥ जो अज्ञानी मनुष्य अपने सामान्य जीवन के लिए निर्दय होकर पाप कर्म करते हैं, वे महाभयंकर, प्रगाढ़ अन्धकार से आवृत्त एवं तीव्र तापवाले तमिस्र - नरक में जन्म लेते हैं । - सूत्रकृताङ्ग ( १/५/२/३ ) [ ५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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