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________________ यदि तू घोर भवसागर के पार तट पर जाना चाहता है, तो हे सुविहित ! शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण करो। -मरण-समाधि ( २०२) मोह सेणाचइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई । एवं कम्माणि णस्संति, मोहाणिज्जे खयं गए। जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है ; वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं । -दशाश्रुतस्कंध (५/१२) एगं विगिचमाणे पुढो विगिचइ । जो मोह को क्षय करता है, वह अन्य अनेक कर्म-विकल्पों को भी क्षय करता है। -आचारांग ( १/३/४ ) कीरदि अज्सवसायं, अहं ममेदं ति मोहादो। मैं और मेरे का विकल्प मोह के कारण ही पैदा होता है । -प्रवचनसार ( २/६१) जहा य अंडप्पभगबलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । ए मेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हायरणं वथन्ति ॥ जैसे बगुली अंडे से पैदा होती है और अंडा बगुली से, वैसे ही मोह का उत्पत्ति स्थान तृष्णा है और तृष्णा का उत्पत्ति स्थान मोह ।। -उत्तराध्ययन (३२/६ ) रागो य दोसो वि य कम्म बीयं । कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति ॥ कर्म का बीज राग भी है और द्वेष भी, और कर्म मोह के कारण होता है। ---- उत्तराध्ययन ( ३२/७ ) २२८ ] . ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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