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________________ नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सहे । खरितेण निगिण्हाई, तवेण परिसुज्झई ॥ ज्ञान से भावों और पदार्थों का सम्यग् बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती हैं, चारित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से आत्म परिशुद्ध होती है । - उत्तराध्ययन ( २८/३५ ) नाणस सव्वस्स पगासणाए, अण्णाणमोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंत सोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ संपूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान एवं मोह के परिहार से तथा राग-द्वेष के पूर्णक्षय से आत्मा एकान्त सुख रूप मोक्ष प्राप्त करता है । - उत्तराध्ययन ( ३२ / २ ) तस्सेस्स मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवज्जणा बाल जणस्स दूरा । सज्झाय एगन्त निवेसणा य, सुत्तत्थ संचिन्तणया धिई य ॥ सद्गुरु और अनुभवी वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी - मूर्खों के संपर्क से दूर रहना, एकान्त मन से सत्-शास्त्र का अध्ययन, उनका चिंतन और चित्त धृतिरूप अटल शान्ति पाना - मोक्ष का मार्ग है । - उत्तराध्ययन ( ३२ / ३ ) मग्गो खलु सम्मत्तं मार्ग मोक्ष का उपाय हैं । मग्गफलं होइ निव्वाणं ॥ उसका फल निर्वाण या मोक्ष है । णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित णाणाहि । भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसणि पायेण ॥ २२६ ] जहाज चलानेवाला नियमक तो ज्ञान है, पवन की जगह ध्यान है और चारित्र जहाज है । इस ज्ञान, ध्यान, चारित्र तीनों के मेल से भव्य जीव संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं । — मलाचार ( ५/५ ) - मलाचार (८८) णाणं पयासगं, सोहवो तवो, संजमो य गुत्तिकरो । तिण्हं पि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे भणि ओ ॥ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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