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________________ एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्ति सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छह ॥ धर्म-वृक्ष का मूल है 'विनय' और उसका परम-अंतिम फल है मोक्ष । सचमुच विनय के द्वारा ही मनुष्य कीर्ति, विद्या, प्रशंसा और समस्त इष्ट तत्त्वों को प्राप्त करता है । - दशवैकालिक (६/२/२) आयारमट्ठा विणयं पउंजे । आचार की प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करना चाहिए। –दशवकालिक (६/३/२) जस्सन्तिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्सन्तिए वेणइयं पउंजे । जिससे धर्म पद का शिक्षण मिला है, उसके साथ विनयपूर्वक आचरण करना चाहिए। -दशवैकालिक (६/१/१२) विणओ मोक्खद्दार, विणयादो संजमो तवो णाणं । विनय मोक्ष का द्वार हैं। विनय से संयम, तप तथा ज्ञान प्राप्त होता है । -मूलाचार (७/१०६) दसणणाणे विणओ, चारित्त तव ओवचारिओ विणओ। पंचविहो खलु विणओ, पंचम गइणायगो भणिओ॥ विनय पाँच प्रकार का होता है-दर्शन-विनय, ज्ञान-विनय, चारित्र-विनय, तप-विनय और उपचार-विनय । -मूलाचार (५/१८७) अप्पसुदो वि य पुरिसो, खवेदि कम्माणि विणएण । अल्पशास्त्र का अभ्यासी पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मों का नाश करता है। -मूलाचार ( ७/१०८) हिय-मिय-अफरुसवाई, अणुवीइ भासि वाइओ विणओ । [ २११ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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