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________________ भक्खणे देव-दव्वस्स, परत्थी-गमणेण य । सत्तमं नरइयं इंति, सत्तवाराओ गोयमा ॥ हे गौतम ! देव-द्रव्य के हड़पने से और परस्त्री के साथ मैथुन करने से सातवें नरक में सात बार जाना पड़ता है। -कामघट-कथानक ( १२४) वज्जिज्जा तेनाहडतक्कर जोगं विरुद्ध रज्जं च | कूडतुल-कूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ॥ चोरी का माल लेना, तस्करी करना, राज्य-आज्ञा का उल्लंघन करना, नाप-तौल की गड़बड़ तथा मिलावट-ये सब चोरी के तुल्य हैं । -सावयपण्णत्ति ( २६८) गामे वा णयरे वा, रणे वा पेच्छिऊण परमत्थं । जो मुंचदि गहणभावं, तिदियवदं होदि तस्सेव ॥ ग्राम में, नगर में या वन में परायी वस्तु को दृष्टिगत कर जो मन में उसके ग्रहण करने का भाव नहीं लाता है, उसके तृतीय अस्तेय महावत होता है । —नियमसार (५८) अजीव सुहदुक्खजाणणा वा, हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्त। जस्स ण विज्जदि णिच्चं, तं समणा विति अज्जीवं ।। श्रमण-जन उसे अजीव कहते हैं जिसे सुख-दुःख का ज्ञान नहीं होता, हित के अति उद्यम और अहित का भय नहीं होता। -पंचास्तिकाय (१२५) अज्ञान एवं तक्काइ सहिंता, धम्माधम्मे अकोबिया। दुक्खं ते नाइतुति , सउणी पंजर जहा ॥ [ ३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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