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________________ मनुष्य-जन्म नो हूवणमन्ति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ जैसे बीती रात्रियाँ कभी नहीं लौटती, वैसे ही मनुष्य-जीवन पुनः पाना बड़ा कठिन है। __ -सूत्रकृतांग ( १/२/१/१०/१) मणुवगईए वि तओ मणमुगईए महत्वदं सयलं । मणुवगदीए झाणं मणुवगदीए वि णिव्वाणं ॥ मनुष्य-गति में ही तप होता है, मनुष्य-गति में ही सब महावत होते हैं, मनुष्य-गति में ही ध्यान होता है और मनुष्य-गति में ही मोक्ष की प्राप्ति है । -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( २६६) जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययन्ति मणुस्स यं। जब संसार में आत्माएँ किञ्चित् विशुद्ध हो जाती हैं तब मनुष्य-जन्म प्राप्त करती हैं। -उत्तराध्ययन (३/७) माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं, नरंग-तिरिक्खत्तणं धुवं ॥ मानव-जीवन मूल-धन है। देवगति उसमें लाभ रूप है। मूल-धन के नाश होने पर नरक, तिर्यञ्च-गति प्राप्ति रूप हानि होती है। -उत्तराध्ययन ( ७/१६) दुल्लहे खलु माणुसे भवे।। दीघकाल के पश्चात् भी प्राणियों को मनुष्य-जन्म मिलना बड़ा दुर्लभ है । -उत्तराध्ययन (१०/४) मनोभाव (लेश्या) लेस्सासोधी अज्झ वसाणविसोधीए होइ जीवस्स । अज्झवसाणविसोधि, मंदकसायल्स णायव्वा॥ २०२ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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