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________________ पावाणं जदकरणं, तदेव खलु मंगलं परमं । पापकर्म न करना ही वस्तुतः परम मंगल है | - बृहत् कल्पभाष्य ( ८१४ ) जह मक्कडओ खणमवि, मज्झत्थो अच्छिउ न सक्केइ । तह खणमवि मज्झत्यो, विसएहि विणा न होइ मणो ॥ वैसे ही मन भी जैसे बंदर क्षणभर भी शान्त होकर नहीं बैठ सकता, संकल्प - विकल्प से क्षणभर के लिए भी शांत नहीं हो सकता । मणुसहिदयं पुणिणं, गहणं दुच्वियाणकं । मनुष्य का मन बड़ा गहरा है, इसे समझ पाना बड़ा कठिन है । मणसलिले थिरभूप, दीसह अप्पा मन रूपी जल जब स्थिर एवं विमल हो जाता है, दिव्य रूप झलकने लगता है । २०० ] Jain Education International 2010_03 मन - भक्तपरिज्ञा (८४ ) -- इतिभासियाई ( १/८ ) मज्जेव णरो अवसो, कुणेड कम्माणि जिंदणिज्जाई । इहलोए परलोए, अणुहवइ अर्णतयं दुक्खं ॥ For Private & Personal Use Only तहाविमले । तब उसमें आत्मा का - तत्त्वसार ( ४१ ) मद्यपान से मनुष्य मदहोश होकर निन्दनीय कर्म करता है और फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक में अन्ततः दुःखों का अनुभव करता है । - वसुनन्दि-श्रावकाचार ( ७० ) मद्यपान www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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