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________________ आत्मा के ज्ञान, ध्यान व अध्ययन रूप सुखामृत को छोड़कर जो इन्द्रियों के सुख को भोगता है, वह ही बहिरात्मा है । ___-रयणसार ( १३५) मिच्छत्त-परिणदप्पा तिव्व-कसाएण सुठ्ठ आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ जो जीव मिथ्यात्व-कर्म के उदयरूप परिणत हो, तीव्र कषाय से अच्छी तरह आविष्ट हो और जीव तथा शरीर को एक मानता हो, वह बहिरात्मा है । -कात्तिकेयानुप्रेक्षा ( १६३) घोडगलिंडसमाणस्स, तस्स अभंतरम्मि कुधिदस्स । बाहिरकरणं किं से, काहिदि वगणिहुदकरणस्स ॥ बगुले की चेष्टा के समान अन्तरंग में जो कषाय से मलिन है, ऐसे साधु की बाह्य क्रिया किस काम की ? वह तो घोड़े की लीद के समान है, जो ऊपर से चिकनी और भीतर से दुर्गन्धयुक्त होती है । -भगवती-आराधना (१३४७) बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचओ। णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिडिओ॥ जिसका मन बाह्य धनादिक में तत्पर है, वह इन्द्रियों के द्वारा अपने स्वरूप से च्युत है। वह तो मिथ्याटष्टि है जो अपनी देह को आत्मा समझता है। -मोक्षपाहुड़ (८) अन्तरबाहिरजप्पे, जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा। जो अन्दर एवं बाहर के वचन-विकल्प में रहता है, वह बहिरात्मा है। --नियमसार (१५.) झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि । ऐसा समझ कि ध्यान से रहित साधक बहिरात्मा है। -नियमसार ( १५१) [ १८१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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