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________________ लच्छी दिज्जउ दाणे दया पहाणेण । जा जल- तरंग - चवला दो तिण्णि दिणाइ चिट्ठ ेइ । यह लक्ष्मी जल में उठनेवाली लहरों के सदृश चंचल है । दो-तीन दिन ठहरनेवाली है । अतः इसे दयालु होकर दान दो । - कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा ( १२ ) य... देदि पत्ते सु । णिष्फलं तस्य ॥ जो मनुष्य लक्ष्मी का केवल संचय करता है, दान नहीं देता, वह अपनी आत्मा को ठगता है और उसका मनुष्य जन्म लेना वृथा है । - कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा ( १३ ) जो पुण लच्छि संखदि ण सो अप्पाणं वयदि मणुयत्तं जो वड्ढमाण- लच्छि अणवरथं दे दि धम्म कज्जेसु । सो पंडिएहि थुव्वदि तस्स वि सयला हवे लच्छी ॥ जो मानव अपनी बढ़ती हुई लक्ष्मी को सर्वदा धर्म के कामों में देता है, उसकी लक्ष्मी सदा सफल है और पण्डितजन भी उसका यश गाते हैं, प्रशंसा करते हैं । भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होति । भोजन का दान देने से उनके प्राणों की रक्षा होती है । - कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा (१६) १३८ ] - कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा (३६४ ) दारिद्दय तुज्झ गुणा गोविज्जंता वि धीरपुरिसेहिं । पाहुणपसु छणेसु य वसणेसु य पायडा हुंति ॥ Jain Education International 2010_03 दारिद्र्य ! धीर पुरुषों द्वारा छिपाये जाने पर भी तुम्हारे गुण पाहुनों, उत्सवों और व्यसनों ( संकट ) में प्रकट हो जाते हैं । - वज्जालग्ग (१४ / १ ) दारिद्रय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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