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________________ अणसण मूणोरिया, भिक्खायरिया य रस परिश्याओ 1 कायकिलेसो संजीणया य, बज्झो तवो होइ ॥ अनशन, ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या, रस- परित्याग, काय- क्लेश और संलीनता - ये बाह्य तप हैं । - उत्तराध्ययन ( ३०/८) पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्च तहेव सज्झाओ । झाणं च विउस्सग्गो, एसो अब्भिन्तरो तवो ॥ प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान तथा व्युत्सर्ग-ये आभ्यन्तर तप हैं । जहा तवस्सी धुणते तवेणं कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता । जिस प्रकार तपस्वी अपने तप से कर्मों को धुन डालता है, उसी तरह तप का अनुमोदन करनेवाला भी । - उत्तराध्ययन ( ३० / ३० ) तप्पते अणेण पावं जिस साधना के माध्यम से पाप कर्म १३० ] जह खलु मइलं वत्थं, सुज्झइ उद्गाइपहिं दव्वेहि । एवं भावुवहाणेण, सुज्झए कम्मअट्ठविहं ॥ जैसे जल इत्यादि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही आध्यात्मिक तप साधना से आत्मा अष्टविध कर्ममल से मुक्त हो जाता है । तप का मूल धैर्य है। - बृहत्कल्पभाष्य ( ४४०१ ) Jain Education International 2010_03 - आचारांग नियुक्ति (२८२) कम्ममिति तपो । तप्त होता है, वह तप है । - निशीथचूर्णि भाष्य ( ४६ ) तवस्स मूलं धित्ती । - निशीथचूर्णि (८४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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