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________________ उपभोग एव अहमिक्को । मैं ( आत्मा ) एक मात्र उपयोगमय हूँ, ज्ञानमय हूँ । - समयसार ( ३७ ) परमापुमित्तंपि ॥ अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदारुवी । ण वि अस्थिमज्झ किंचि वि, अण्ण आत्मद्रष्टा चिन्तन करता है कि मैं तो शुद्ध ज्ञान- दर्शन, स्वरूप, नित्य अमूर्त, एक शुद्ध शाश्वत तत्त्व हूँ । परमाणु- मात्र भी अनन्य द्रव्य मेरा नहीं है । - समयसार (३८) एवं आदा अप्पाणमेव णिच्छययणस्स हि करोदि । वेदयदि पुणोत्तम चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥ निश्चयनय के न्अभिप्रायानुसार आत्मा ही आत्मा को करता है और आत्मा को भी भोगता है । - समयसार (८३) णत्थि विणा परिणामं, अत्थो अत्थं विणेह परिणामो । कोई भी पदार्थ बिना परिणमन के नहीं रहता है, और परिणमन भी बिना पदार्थ के नहीं होता है । - प्रवचनसार ( १ / १० ) अभिहाणा | तच्च तह परमट्ठ, दव्व सहावं तहेव परमपरं । धेयं सुद्ध परमं, एयट्ठा हुंति तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर- अपरध्येय, शुद्ध, परम – ये सब शब्द एकार्थवाची हैं । जीवाऽजीवा य बन्धो य, पुण्णं संवरो निज्जरा मोक्खो, मोक्खो, संतेए पावाऽसवो तहा । तहिया नव ॥ जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष - ये नौ तत्व हैं । Jain Education International 2010_03 - नयचक्र ( ४ ) - उत्तराध्ययन ( २८ / २४ ) [ १२७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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