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________________ असम्यक् हैं। किन्तु ये ही मत जब परस्पर सापेक्ष होते हैं, तब सत्य एवं सम्यक् बन जाते हैं। -सन्मतिप्रकरण (१/२१) जावइया चयणपहा, तावइया चेव होति णयवाया। जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया ।। जितने वचन विकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं और जितने ही नयवाद हैं, विश्व में उतने ही मत-मतान्तर हैं । –सन्मतिप्रकरण ( ३/४७) सुत्तं अत्थनिमेणं, न सुत्तमेत्तेण अत्थपडि वत्ती। अत्थगई पुण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा ॥ सूत्र-अर्थ का स्थान अवश्य है, किन्तु केवल सूत्र से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। अर्थ का ज्ञान तो गहन नयवाद पर आधारित होने के कारण बड़ी कठिलाई से पूर्णरूपेण हो पाता है । -सन्मतिप्रकरण (३/६४) भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमयसारस्स। जिणवयणस्स भगवओ संविग्ग सुहाहि गम्मस्स ।। मिथ्या दर्शनों का समूह, अमृतसागर-अमृत के समान क्लेश का नाशक और मुमुक्षु आत्माओं के लिए सहज सुबोध भगवान जिनवचन का मंगल हो । -सन्मतिप्रकरण (३/६६) जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा ण णिघऽइ । तस्स भुवणेक गुरुणो, यो अणेगंतवायस्स ॥ जिसके बिना संसार का कोई भी व्यवहार सम्यक् रूप से घटित नहीं होता है, जो त्रिभुवन का एकमात्र गुरु है, उस अनेकान्तवाद को मेरा नमस्कार है। -सन्मतिप्रकरण (३/७०) [ १२५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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