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________________ णाणायरो अट्ठविहो-काले, विणए, उवहाणे, बहुमाणे, तहेव अणिण्हवणे विजण-अत्थ-तदुभये । ज्ञानाचार के आठ भेद है : काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिव, व्यंजन, अर्थ और उभय । -श्रमण-प्रतिक्रमणसूत्र (५) ज्ञानी मरणं हेच्च वयंति पंडिया। प्रबुद्ध साधक मृत्यु की सीमाओं को पार करके मुक्त हो जाते हैं । -सूत्रकृतांग ( १/२/३/१) जहा कुम्भे सगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई, मेहावी, अझप्पेण समाहरे ॥ जिस प्रकार कछुआ आपत्ति से बचने के लिए अपने अंगों को सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार पंडितजन को भी विषयों की ओर जाती हुई अपनी इन्द्रियों को अध्यात्म-ज्ञान से सिकोड़ लेनी चाहिए। -सूत्रकृतांग ( १/८/१६) मेहाविणो लोभ - भया वईया संतोसिणो न पकरेन्ति पावं ॥ लोभ एवं भय से रहित होकर सर्वथा संतुष्ट रहनेवाले मेधावी पुरुष किसी भी प्रकार का पापकर्म नहीं करते। __ - सूत्रकृतांग ( १/१२/१५) डहरे य पाणे बुड्ढ़े य पाणे, ते अत्तओ पासइ सव्वलोए। उम्वेहई लोगमिणं महन्तं, बुद्धो पमत्तेसु सुबुद्धाऽपमत्ते पखिएजा ॥ __ ज्ञानी पुरुषों को मोह की निद्रा में सोनेवाले पुरुषों के मध्य रहकर विश्व के छोटे-बड़े सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखभा चाहिए। समदर्शिता के भाव से इस विश्व का निरीक्षण करना चाहिए । -सूत्रकृतांग (१/१२/१८) [ १२१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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