SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पासम्मि बहिणिमाय, सिसुंपि हणेइ कोहंधो। क्रोध में अन्धा हुआ व्यक्ति निकट में खड़ी माता, बहिन और बच्चों को भी मारने लग जाता है। -वसुनन्दि-श्रावकाचार (६७) अप्पाणं पि नं कोवए अपने आप पर भी कभी क्रोध न करें। --उत्तराध्ययन ( १/४.) कोहविजए णं खंति जणयई । क्रोध-विजय से क्षमाभाव उत्पन्न होता है । --उत्तराध्ययन ( २६/६७) कोवेण रक्खसो वा, णराण भीमो णरो हवदि। क्रुद्ध मानव राक्षस के समान भयंकर बन जाते हैं। -भगवती-आराधना (१३६१) जह कोहाइ विवढ्ढी, तह हाणी चरणे वि। ज्यों-ज्यों क्रोधादि की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों चारित्र की सतत हानि होती है। -निशीथ-भाष्य ( २७६०) कोहो पीइ पणासेइ । क्रोध प्रीति का विनाशक है । -दशवैकालिक (८/३८) सुछ वि पियो मुहुत्तेण होदि वेसो जणस्स कोधेण। पधिदो वि जसो णस्सदि कुद्धस्स अकज्जकरणेण || क्रोध से मनुष्य का अत्यन्त प्यारा व्यक्ति भी क्षण भर में शत्रु हो जाता है। क्रोधी व्यक्ति के अनुचित आचरण से अत्यन्त प्रसिद्ध उसका यश भी नष्ट हो जाता है। -अर्हतप्रवचन (७/३५ ) [ ६६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy