SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काम-मोग सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोवमा। संसार के काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं । --उत्तराध्ययन (६/५३) उविञ्च भोगा पुरिसं चयन्ति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी। काम-भोग क्षीण शक्तिवाले व्यक्ति को वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे कि क्षीण फलवाले वृक्ष को पक्षी । -उत्तराध्ययन (१३/३१) खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा। काम-भोग क्षणभर के लिए सुख देते हैं, तो चिरकाल तक दुःख देते है ; अधिक दुःख और थोड़ा सुख देते हैं। संसार से मुक्त होने में बाधक और अनर्थों की खान हैं। -उत्तराध्ययन ( १४/१३) जहा किंपाकफलाणं, परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो॥ जिस प्रकार विष रूप किम्पाक फलों का अन्तिम परिणाम सुन्दर नहीं होता, मौत ही हो जाती है, भले ही दीखने में वे सुन्दर हो। इसी प्रकार काम-भोग भोगते समय तो मीठे लगते हैं पर उनका परिणाम अच्छा नहीं होता । काम-भोग की अमर्यादा जीवन और जगत् में विषमता लाती है । -उत्तराध्ययन (१६/१७) कामो रसो य फासो सेसा भोगेत्ति आहीया। रस और स्पर्श तो काम है और गन्ध, शब्द, रूप भोग है । -आत्मानुशासन (११३८) Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy