SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह तपस्वी, बाल तपस्वी है जिसने उसके तप रूप में किये गये सब कायकष्ट जं अज्जियं चरितं, तं पि कसाइयमेत्तो, देशोनकोटिपूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र उपार्जन किया है वह क्षण भर के ज्वलित कषाय से भस्म हो जाता है । - निशीथ - भाष्य ( २७६३) एगप्पा अजिए सत्तू कसाया । अविजित आत्मा ही एक अपना शत्रु है और अविजित कषाय ही आत्मा है I का शत्रु अहे वयइ कोहेणं, माया गइ पडिग्घाओ, से सुगति का विनाश होता है और पारलौकिक भय होता है । ८६ ] कषायों को निगृहीत नहीं किया । गज- स्नानवत् व्यर्थ हैं । - दशवेकालिक नियुक्ति ( ३०० ) देसुणाय वि पुव्वकोडीए । नासेइ नरो मुहुत्ते णं ॥ मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है, मान से और लोभ से दोनों कसाया अग्गिणो बुत्ता, कषायों को अग्नि कहा गया है । तप शीतल जल है । माणेणं लोभाओ Jain Education International 2010_03 - उत्तराध्ययन ( २३/३८ ) अहमा गई । दुहओ भयं ॥ अधमगति होती है, माया प्रकार का अर्थात् ऐहिक tand - उत्तराध्ययन ( ६/५४ ) सुयसीलतवो जलं । उसे बुझाने के लिए ज्ञान, शील और अकसायं खु चरितं कसायसहिओ न संजओ होइ । , अकषाय ही चारित्र है । अतः कषाय- भाव रखनेवाला संयमी नहीं होता है । - बृहत्कल्पभाष्य ( २७१२ ) - उत्तराध्ययन ( २३ / ५३ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy