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________________ विह्ववता-वीजरत्न शब्दरत्नमहोदधिः। १९१७ विह्ववता स्त्री., विह्वलत्व (विह्वलस्य भावः तल्+टाप्त्व) | वीचिमालिन् पुं. (वीचीनां मालाऽस्त्यस्य इनि) समुद्र. વિઠ્ઠલપણું, ગભરામણ. वीज् (चु० उभ० स. सेट-वीजयति-ते) वी.j, मो वी (अदा० पर. अनिट्-वेति) उत्पन. ५ - २७, irat -खं वीज्यते मणिमयैरिव तालवृन्तै:- मृच्छ० याj, व्याप, ३४, मोन ४२, ४, भोse. ५।१३। (सक. 1) वीज, वीजक न. (वी+क्विप्, जन्+ड कर्म०/ वी पुं. (वी+क्विप्) jd, disj d. बीज+स्वार्थे क्) बी, बी४, २५ -वीजं मां वीक पुं. (अज्+कक् व्यादेशः) वायु, पक्षी, मन... सर्वभूतानां विद्धि पार्थ ! सनातनम्-भग० ७।१०। वीकाश पुं. (वि+काश्+घञ् वा दीर्घः) वि.स, 4.51A, वीर्य, अंकुर, तत्वावधान, म%%1, ३२७, पारी, मेडन्त. અવ્યક્ત એક ગણિત, એક મંત્ર, ધાન્ય વગેરેનું ફળ वीक्ष पुं. (वि+ईक्ष्+क) हो त, हशन (न.) विस्मय, वगे३. पातो पहा. वीजक पुं. (वीजेन कायति, कै+क) बी., पीतसार. वीक्षण न. (वि+ईक्ष+करणे ल्युट) नेत्र, Hir (न. वीजकृत् न. (वीजं शुक्रवृद्धि करोति, कृ+क्विप् तुक्) वि+ईश्+भावे ल्युट) को त, हेमj -मनो जग्राह વાજીકરણ ઔષધ, વીર્યવૃદ્ધિકારક દવા. भावज्ञा सस्मितापाङ्गवीक्षणैः-भाग० ६।१८।२८।। वीजकोष पं. (वीजानां कोष आधार इव) भनी वीक्षणीय त्रि. (वि+ईक्ष+कर्मणि अनीयर) वा साय. भi २९ छेत. वीक्षमाण त्रि. (वि+ईक्ष+शानच्) शेतुं, हेमतुं. | वीजगर्भ पु. (वीजानि गर्भ यस्य) ५/j पात५५. वीक्षा स्त्री. (वि+ ईक्ष्+अ+टाप्) शन, माश्य, वीजगुप्ति स्त्री. (वीजानं गुप्तिर्यस्याम्) . विस्मय, २२म. वीक्षापन्न त्रि. (वीक्षामापन्नः) लोयेस, माश्य पाभेद, वीजतस् अव्य. (वीज+पञ्चम्यर्थे तसिल्) पी४थी, बीमाथी, बीथी. શરમાયેલ. वीक्षित त्रि. (वि+ईक्ष+क्त) येस, मेस -पापरले वीजन न. (वीज+भावे ल्युट्) dixg, it viral, प्रश्रलग्ने तु पापसंयुतवीक्षिते । तथैवाष्टमस्थाने रोगिणां याम२ २३, पं. -मलयजामपसार्य धनं वीजनविघ्नं मरणं दिशेत्-दीपिका । विधाय बाहुभ्याम्-आर्यास० ४५०। वस्तु, यी४. वीडा स्त्री. (वि+ईखि+अच्+टाप्) शूशीबी वनस्पति, (पुं. वीज+करणे ल्युट) 24ts ५क्ष, ®®. मे तनी गति, नृत्य, नीय, घोडानी मे. ति, पक्षी.. संघि, संगम, मिसन. वीजपादप पुं. (वीजप्रधानः पादपः) मीरामानु, ज3, वीचि पं., वीची स्त्री. (वयति जलं तटे वर्द्धयति, બીમાંથી ઉત્પન્ન થયેલ વૃક્ષ. वे+उणा० ईचि स च डित्/वे+डीचि स्रीत्वे वा वीजपुष्प न. (वीजात् पुष्पं यस्य) भ२वी, भानु डीप) त -समुद्रवीचीव चलस्वभावा:-पञ्च० 3. १।१९४ । सरसीष्वर- विन्दानां वीचिविक्षोभशीतलम् | वीजपूर, वीजपूरक, वीजफलक पुं. न. (पूर्यते, रघु० ११४३। भोई, मावश, सुप, 3२५, सत्य, पू+घञ् बीजेन पूरः/वीजपूर एव स्वार्थे क/वीजपधानं सुम. फलं यस्य, कन्/वीजानि फले यस्य कन्) 40.k. वीचितरङ्ग पुं. (वीचिरिव तरङ्गा यत्र) मे. न्याय आउ. तरंगमाथी उत्तरोत्तर त उत्पन. थाय. छे तम. विजपेशिका, वीजपेशी (वीजस्य शुक्रस्य पेशिकेव। विषयमांथी. उत्तरोत्तर यतो विषयनो प्रसार- | वीजस्य पेशी) वृषा, पेणियो. वीचीतरङ्ग न्यायेन तदुत्पत्तिस्तु कीर्तिता । वीजमातृका स्त्री. (वीजानां मातेव, मातृ+स्वार्थे क+टाप) कदम्बगोलकन्यायादुत्पत्तिः कस्यचिन्मते - ५४ाली.४ -पद्माक्षं पद्मबीजं च कर्णिका वीजमातृकाभाषापरिच्छदे । __ हारावली । वीचिमाला स्त्री. (वीचीनां माला) तरंगनी पंडित. वीजरत्न न. (वीजं रत्नमिवास्य) 4u. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016069
Book TitleShabdaratnamahodadhi Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktivijay, Ambalal P Shah
PublisherVijaynitisurishwarji Jain Pustakalaya Trust Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages562
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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