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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । प्रकारके साहित्यके सर्जनका उत्साह खूब बढा । वादी देवसूरिने न्यायशास्त्रके सभी अंग-प्रत्यंगोंका लक्षण प्रतिपादन करनेवाला 'प्रमाणनयतत्वलोकालंकार' नामक बहुत प्रौढ और प्रकृष्ट सूत्रात्मक ग्रन्थ बनाया और उस पर 'स्याद्वादरत्नाकर' नामकी खोपज्ञ ऐसी बहुत ही विस्तृत व्याख्या बनाई जो ८४००० श्लोक प्रमाण जितनी बडी थी । ऐसा ही एक बड़ा सूत्रग्रन्थ 'कलिकालसर्वज्ञ' बिरुद धारक हेमचन्द्राचार्यने 'प्रमाणमीमांसा' नामक बनाया; तथा अन्य अन्य आचार्योंने भी इस प्रकारके छोटे बडे अनेक प्रकरणग्रन्थ बनाये । व्याकरणके विषयमें मी हेमचन्द्राचार्यने 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक सर्वांग परिपूर्ण एवं सर्वोत्कृष्ट कोटिमें गिना जाय ऐसा महान् शब्दशास्त्र बनाया । वैसे ही मलयगिरि सूरिने भी एक 'मलयगिरि व्याकरण' नामक स्वतंत्र ग्रन्थकी रचना की; एवं 'गणरत्नमहोदधि' नामक आदि अन्य ग्रन्थोंकी मी अन्यान्य आचार्योंने रचनाएं की । इस तरह जिनेश्वर सूरिके बाद, कोई सौ वर्षके भीतर ही, श्वेतांबर साहित्यका भंडार, व्याकरण और प्रमाण विषयके लक्षणप्रतिपादक ऐसे अनेक उत्तम प्रकारके ग्रन्थरत्नोंकी वृद्धिसे अलंकृत होकर, संप्रदायानुयायियोंको गौरवका अनुभव कराने लगा। जिनेश्वर सूरि चाहते तो वे अकलंक देवके 'प्रमाणसंग्रह' 'न्यायविनिश्चय' आदि तथा माणिक्यनन्दिके 'परीक्षामुख' आदि ग्रन्थोंकी तरह खतंत्र प्रकरणग्रन्थ बना सकते; परंतु वैसा न करके उन्होंने सिद्धसेन सूरिके उक्त 'न्यायावतार' ग्रन्थमें ग्रथित आदि 'शास्त्रार्थसंग्रह' श्लोकको ही आधारभूत मान कर, उसके वार्तिकरूपमें अपने ग्रन्थकी जो रचना की, इसमें उनका लक्ष्य अपने पूर्वाचार्यकी कृति तरफ बहुमान प्रदर्शित करनेका भी रहा है - ऐसा उनके उल्लेखसे स्पष्ट ज्ञात होता है । उनके उल्लेखसे यह भी सिद्ध होता है कि जैन वाङ्मयमें न्यायतत्त्वकी प्रस्थापना करनेवाला वह 'न्यायावतार' ही आद्य कृति है और सिद्धसेन दिवाकर ही उस तत्त्वके प्रस्थापक आय सूरि हैं। प्रायः जिनेश्वर सूरिके ही समकालीन होनेकी जिनकी संभावना की जा सके ऐसे अन्य एक शान्तिसूरि नामक आचार्यने भी सिद्धसेन दिवाकरके इसी आद्य श्लोक पर, जिनेश्वर सूरिके समान ही, स्वतंत्र वार्तिक श्लोक और उनपर 'विचारकलिका' नामक विशद वृत्ति बनाई है । इन दोनों कृतियोंका परस्पर मिलान करनेसे ज्ञात होता है, कि ये कृतियां परस्पर एक-दूसरे ग्रन्थकारके देखनेमें नहीं आई, और अतः इस एक ही सूत्रग्रन्थ पर, इस प्रकार दो वार्तिक-रचनाएं एक साथ निर्माण हुई। इससे लाभ यह हुआ कि अभ्यासियोंको ग्रन्थके अध्ययनमें अधिक विचारकी सामग्री उपलब्ध हुई । क्यों कि शान्तिसूरिने अपने वार्तिकमें एक प्रकारसे विवेचना की, तो जिनेश्वर सूरिने अपने वार्तिकमें दूसरे प्रकारसे विचारणा की। अतः ये दोनों कृतियां एक दूसरीकी पुनरावृत्तिरूप न होकर पूरक रूप होने जैसी बनी हैं। जिनेश्वर सूरिने इस ग्रन्थमें, जैनसम्मत प्रमाणके लक्षण प्रस्थापित करते हुए अन्यदार्शनिक लक्षणोंका, संक्षेपमें परंतु सारभूत विवेचनके साथ, निरसन किया है । इस निरसनमें मुख्य करके बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक और सांख्य जैसे मौलिक दर्शनोंके प्रमाणविचारकी आलोचना की गई है । इस आलोचनामें, बौद्ध दार्शनिकोंमेंसे खास करके दिग्नाग, धर्मकीर्ति और शान्तिरक्षित जैसे सुप्रसिद्ध और प्रमाणभूत ग्रंथकारोंके विचारोंका ऊहापोह किया गया है । मीमांसकोंमें खास करके महातार्किक भट्ट कुमारिलके १ प्रन्यारंभमें प्रास्तविकरूपसे जो ७ पद्य लिखे हैं उनमें ४ थे पद्यके चतुर्थ पादमें यह भाव व्यक्त किया गया है। अथा-'श्लोकैर्वार्तिकमाद्यसूरिसुकृतौ टीका च तत्रारमे ।' २ शान्तिसूरिकी यह प्रौढ कृति भी इसी ग्रन्थमालामें, इसी ग्रन्थके प्रकाशनके साथ साथ, प्रकट हो रही है। इसका संपादन पं. श्रीदलसुख मालमणियाने किमा है जो अपने ढंगका एक अपूर्व और विशिष्ट संस्करण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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