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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । ५५ 1 लित कर दिया है । जिनमन्दिर बनवानेका उपदेश उन्होंने किस ढंगसे किया है इसका वर्णन पढने लायक है । लिखा है कि - जिस आत्माको सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है उसके मनमें, संसारके जीवों के कष्टों को देख कर, अनुकंपा होती रहती है; और वह सोचता रहता है कि किस तरह किसीका दुःख दूर करनेमें वह यथाशक्ति प्रयत्न करें । वह सोचता है कि संसारके दुःखोंसे मुक्त करनेवाला एक मात्र जैन धर्म है । जैन धर्मके पालन के सिवा और कोई सच्चा उपाय नहीं है । इसलिये जो जीव मिध्यात्वमं लिपटे हुए हैं उनको, जैन धर्मके प्रति अनुराग कैसे उत्पन्न हो इसका वह विचार करता है। और सोचता है, कि मैं अपने नीतिपूर्वक उपार्जित किये हुए धनसे ऐसा सुन्दर जिन मन्दिर बनवाऊं, जिसको देख कर गुणानुरागी जनों को धर्मके बीजकी प्राप्ति हो । इसी तरह वैसा ही सुन्दर जिनबिंब ( जैनमूर्ति) बनवाऊं जिसके दर्शनसे तथा पूजा - महोत्सव आदिके प्रभावसे गुणरागी मनुष्यको बोधी अर्थात् सम्यग् दर्शनका लाभ हो । इसी तरह पुस्तकालेखनका उपदेश भी जिस ढंगसे किया है वह मनन करने लायक है । कहा है कि - जिनमन्दिरादिके निर्माणका जो उपदेश ऊपर दिया गया है वह सब विधिपूर्वक अर्थात् शास्त्रोक्त रीति से किया जाना चाहिये । शास्त्रका ज्ञान पुस्तकोंके पढनेसे होता है, अतः सम्यक्त्वधारक जीव दूसरोंकी अनुकंपा के निमित्त, पुस्तकालेखनमें प्रवृत्त होता है । वह सोचता है, जैन प्रवचनरूप अमृतश्रुति के प्रभावसे मनुष्यको वस्तुके सत्यखरूपका ज्ञान होकर कुश्रुति ( मिथ्याज्ञान ) का नाश होता है । इसलिये जैनशास्त्रोंको पुस्तकके रूपमें लिखवा लिखना कर, उनका उपदेश करनेवाले साधुजनों को समर्पित करना कल्याणकर है । यहीं पर जिनेश्वर सूरिने यह भी उपदेश किया है, कि इस प्रकार श्रावक न केवल जैन मतके शास्त्रोंका ही लेखन करावे किंतु व्याकरण, छंद, नाटक, काव्य अलंकारादि ग्रन्थोंका, तथा छहों दर्शनोंके तर्क ग्रन्थोंका, एवं ब्राह्मणोंके श्रुति, स्मृति, पुराणादि ग्रन्थोंका भी, लेखन कराकर जैन साधुओंको समर्पित करें। क्यों कि विना इन शास्त्रों और ग्रन्थोंके सम्यग् ज्ञानके, उपदेशक साधुजन, अन्य मतावलंबी विद्वानोंके विचारोंका सारासार भाव नहीं जान सकते और विना वैसे जाने, अपने सिद्धान्तों का समर्थन और दूसरोंके सिद्धान्तोंका खण्डन आदि भी नहीं कर सकते । इसलिये श्रावकको ये सब शास्त्र-ग्रंथ आदि अवश्य लिखवाने चाहिये । उसको ऐसा विचारना चाहिये कि - प्रतिभा आदि गुणयुक्त जो साधुजन हैं उनको वसति, सयनाशन, आहार, ओषधि, भैषज्य, वस्त्र आदि वस्तुओं की सदैव सहायता पंहुचा कर और पुस्तकोंका समर्पण कर, जैन शासनको अन्य दार्शनिकों के आक्षेपोंसे सुरक्षित करूं और वैसा करके अन्य भव्यजनोंको जैन धर्ममें अनुरक्त करूं - इत्यादि । 1 १ सम्मद्दिट्ठी जीवो अणुकंपा परो सयावि जीवाणं । भाविदुहविप्पओगं ताण गणंतो विचितेइ ॥ ५३ नियय सहावेण हया तावदभव्वा ण मोइउं सक्का । भवदुक्खाओ इमे पुण भव्वा परिमोयणीया उ ॥ ५४ संसारदुक्खमोक्खणहेउं जिणधम्ममन्तरा नन्नो । मिच्छत्तदयसंगयजणाणं स य परिणमिजइ कहं नु ॥ ५५ नायज्जियवित्तेणं कारेमि जिणालयं महारम्मं । तदंसणाउ गुणरागिणी जंतुणो बीयलाभुत्ति ॥ ५६ कारेमि बिंबममलं दद्धुं गुणरागिणो जभो बोहिं । सज्जो लभेज अन्ने पूयाइसयं च दणं ॥ ५७ २ असिंपत्तीए निबन्धणं होइ विहिसमारंभो । सो सुत्ताओ नज्जइ तं चित्र लेहेमि ता पढमं ॥ ६१ जिणवयणामय सुहसंगमेण उवलद्ध वत्थुसन्भावं । कुस्सुइनियतभावा भयंति जिणधम्ममेगे उ ॥ ६२ जिणवयणं साहंता साहू जं तेवि साहणसमत्था । वायरणछंदनाडयकव्वालंकारनिम्माया ॥ ६३ छद्दरिणत कविआ कुतिस्थिसिद्धंतजाणया धणियं । ता ताण कारणे सव्वमेव इह होइ लिहणीयं ॥ ६४ इभाइगुणजुयाण वसही सयणासणाइणा निच्चं । आहारोसहि भेसज्जवत्थमाईहिं उवठभं ॥ ६५ काऊ पुत्याइं समप्पियं सासणं कुतित्थीणं । अधरिसणीयमेयं काहामि तओ य जिधम्मे ॥ ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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