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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन | કર્ बतलाई है और जो हमें अपने गुरु-संप्रदायसे ज्ञात हुई है, उसीका निर्देश करना अभीष्ट है; और फिर जहां कहीं यत् किंचित् हमने कुछ अन्य आचार्योंके कथन का स्थान शून्य न रखनेकी दृष्टिसे ही किया है । अनुवर्तन किया है, तो वह मात्र जहां कहीं अन्य आचार्योंके संप्रदाय से इनका मतभेद रहा वहां कह दिया है कि इस विषय में हमारे गुरुओंका कोई व्यवहार नहीं है इसलिये हम इसके विधानमें कोई निर्णय नहीं देना चाहते' इत्यादि । इस विवरण में उपलब्ध एक उल्लेखसे हमें यह एक ऐतिहासिक प्रमाण मिलता है कि इनके समय में पादलिप्त सूरिकी प्रसिद्ध ' तरङ्गवती' कथा मूलरूपमें विद्यमान थी । अपने एक मन्तव्य के विधानके समर्थन में इन्होंने लिखा है कि- "अत एव प्रदीप्तकाचार्येण तरङ्गवत्यां दर्शितमिति ।" इस टीकाके उपसंहार में निम्न लिखित पद्य लिखे हैं जिससे इनके मनोभावका अच्छा आभास मिलता है - नो विद्यामदविलेन मनसा नान्येषु चेयवशात् • टीकेयं रचिता न जातु विपुलां पूजां जनाद् वाञ्छता । नो मौढ्यान्न च चापलाइ यदि परं प्राप्तं प्रसादाद् गुरोः सुरेजैन मतानुरक्तमनसः श्रीवर्द्धमानस्य यः ॥ १ ॥ सत्संप्रदायोऽयमशेषभव्यलोकोपकाराय भवत्वविघ्नः । बुद्ध्येति टीकां विरहय्य नायं ( ? ) भव्यानशेषानुपकर्तुमीशः ॥ २ ॥ श्रीमजिनेश्वराचायैः श्रीजाबालिपुरे स्थितैः । पाणवते कृता टीका वैशाखे कृष्णभौतिके ॥ ३ ॥ भावार्थ - इस टीकाके बनानेमें न मेरा विद्यामदविह्वल मन ही निमित्त है, न किसीकी कृतिकी ईर्ष्या ही उत्तेजक है अथवा न लोकोंसे पूजा प्राप्त करनेकी लालसा ही कोई कारण है । इसी तरह न मूढता एवं चपलता ही इसमें प्रेरक है । केवल जैन मतमें अनुरक्त ऐसे मेरे गुरु श्री वर्द्धमान सूरिके प्रसादसे जो सत्संप्रदाय मैंने प्राप्त किया है, वह भव्य जनोंके उपकारके लिये निमित्त हो इस बुद्धिसे मैंने यह टीका बनाई है । संवत् ९६ ( विक्रमाब्द १०९६ ) के वैशाखमासमें, जाबालिपुरमें रहते हुए इस टीकाको समाप्त की । ( ३ ) षट्स्थानक प्रकरण । जिनेश्वर सूरिने जैन मतानुयायी गृहस्थ उपासकोंके कैसे आचार और विचार होने चाहिये इसको लक्ष्य करके एक छोटासा प्रकरण प्राकृत गाथाओंमें बनाया जो 'षट्स्थानक प्रकरण' के नामसे प्रसिद्ध है । इसमें श्रावक (उपासक) जीवनके उत्कर्षक ऐसे ६ स्थानोंका अर्थात् गुणों का स्वरूप वर्णन किया गया है इससे इसका नाम 'षट्स्थानक प्रकरण' ऐसा प्रसिद्धि में आगया है । इसका दूसरा नाम 'श्रावकवक्तव्यता प्रकरण' ऐसा भी है । १ 'अत्र च बहु वक्तव्यं तच स्थानान्तरादवसेयम् । इह तु वृत्त्यन्तरानुपात्तस्य स्वगुरुप्रसादावाप्तसंप्रदायस्यैवाभिधातुमिष्टत्वात् । यत्तु परैरेवोक्तं तत्र स्थानाशून्यार्थं यदि परं क्वचिदिति । ' २ ' तत्र प्रवृत्तिनिमित्तसंप्रदायो नास्माकमतो न तदर्थमायास इति ।' 'तत्रापि न प्रवृत्ती संप्रदायोऽस्माकं किञ्चित् ।' ३ पादलिप्तसूरिका नाम प्रदीप्ताचार्य के रूपमें यहां उल्लिखित किया है जो प्राकृत पलित्त का सीधा संस्कृत भाषन्तर रूप है । एक और जगह भी इन्होंने इसी नामसे इनका उल्लेख किया है । क० प्र० ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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