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________________ ४७ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । प्रसङ्ग यह है- इस अष्टक-संग्रह ग्रन्थमें एक प्रकरण आया है जिसमें तीर्थकरद्वारा असंयत जनको दान देनेका वर्णन है । मालूम देता है प्राचीन कालसे इस विषयमें जैनाचार्योंका परस्पर कितनाक मतभेद चला आता रहा है । हरिभद्र सूरिने इस प्रकरणमें जिस ढंगसे अपना मन्तव्य प्रकट किया है वह कुछ आचार्योको सम्मत नहीं था और इस लिये वे कहते थे कि हरिभद्र सूरिने अपने आचारका समर्थन करने की दृष्टिसे इस प्रकरणकी रचना की है - इत्यादि । उन आचार्योंका कहना था कि हरिभद्र सूरिके कुछ आचार ऐसे थे जो जैनशास्त्र-सम्मत यतिजनोंके आचारसे विरुद्ध थे । हरिभद्र सूरि जब भोजन करने बैठते तो पहले शंख बजवा कर भोजनार्थी जनोंको आमंत्रित करवाते और उनको भोजन दिलवा कर फिर अपने आप भोजन करते । यह आचार जैन भिक्षुगणके आचारसे सर्वथा विरुद्ध अतएव दूषित था । जैन मुनि किसी भी असंयत (जैनेतर) भिक्षुकको, किसी भी प्रकारका दान, न करता है न करवाता है । वैसा करनेवाला जैन मुनि विरुद्धाचारी समझा जाता है। उक्त अष्टक प्रकरणमें हरिभद्र सूरिने जिस ढंगसे असंयतदानका कुछ समर्थन किया है वह, उन अन्य आचार्योंके विचारमें, हरिभद्र सूरिके अपने निजी आचारके समर्थनके रूपमें प्रथित किया मालूम देता है । इसके उत्तरमें जिनेश्वर सूरिने उक्त प्रकरणका अपने मन्तव्यानुसार विवरण कर, हरिभद्र सूरिका भी चैत्यवासी न होना बतला कर, संविग्नपाक्षिक होना स्थापित किया है । जिनेश्वर सूरिका यह उल्लेख निम्न प्रकार है स्वकीयासंयतदानसमर्थनार्थमिदं प्रकरणं सूरिणा कृतमिति केचित् कल्पयन्ति । हरिभद्राचार्यो हि स्वभोजनकाले शङ्खवादनपूर्वकमर्थिभ्यो भोजनं दापितवानिति श्रूयते । न चैतत् संभाव्यते । संविग्नपाक्षिको ह्यसौ । न च संविग्नस्य तत्पाक्षिकस्य वानागमिकार्थोपदेशः संभवति । तत्वहानिप्रसङ्गात् ।। इस अवतरणके पढनेसे पाठकोंको जिनेश्वर सूरिकी लेखन-शैलीका और प्रतिपादन-पद्धतिका भी कुछ परिचय हो सकेगा। (२) चैत्यवन्दनविवरण । जिनेश्वर सूरिकी व्याख्यारूप दूसरी कृति जो उपलब्ध होती है वह 'चैत्यवन्दन'वरूप प्राकृत सूत्रोंकी संस्कृत वृत्ति है । इस वृत्तिकी रचना भी उन्होंने उसी ( उक्त ) जाबालिपुरमें की थी जहां उपरि वर्णित 'अष्टकप्रकरण की व्याख्या-रचना की थी । इसका रचना संवत् १०९६ विक्रमीय है । अर्थात् 'अष्टकप्रकरण' वृत्तिके १६ वर्ष बाद, इसकी रचना की गई है । यह एक छोटीसी कृति है जिसका परिमाण कोई प्रायः १००० श्लोक जितना होगा। 'चैत्यवन्दन'सूत्रपाठ जैन श्वेताम्बर मूर्ति उपासक संप्रदायमें बहुत प्रसिद्ध है। चैत्य अर्थात् अर्हद्विम्ब= जिनमूर्ति । उसकी स्तुति-पूजा किस तरह करनी चाहिये इसके ज्ञापक कुछ सूत्र पूर्वाचार्योंके बनाये हुए बहुत प्राचीन कालसे प्रचलित हैं। इनमेंसे कुछ सूत्र तो-जैसे शक्रस्तवादि - 'आवश्यक सूत्र के अन्तर्गत पठित हैंकुछ उसके बहारके हैं । इन सूत्रों पर शायद सबसे पहले हरिभद्र सूरिने एक अच्छी विस्तृत संस्कृत व्याख्या लिखी जिसका नाम उन्होंने 'ल लि त वि स्त रा' ऐसा रक्खा । हरिभद्र सूरि रचित ग्रन्थोंमें यह भी एक विशिष्ट प्रकारकी प्रौढ रचना है । सिद्धर्षि जैसे महान् भावुक विद्वान्को इस रचनाके पढनेसे उनके मानसिक भ्रमका निवारण हुआ और वे अपने जीवनके आदर्शमें निश्चल हुए। इसके परिणाममें उन्होंने 'उपमितिभवप्रपञ्चा' कथा नामक ग्रंथकी रूपकात्मक शैलीमें अपनी आध्यात्मिक आत्मकथाकी अद्भुत और अनुपम रचना की । हरिभद्र सूरिकी यह 'चैत्यवन्दनसूत्र-वृत्ति' कुछ विशेष प्रौढ एवं दार्शनिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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