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________________ जिनेश्वरसूरिकी कार्यसफलता। गुरुओंका बहुत ही गौरवमय भाषामें और चैत्यवासियोंका बहुत ही क्षुद्र एवं ग्राम्य भाषामें, नाटकीय ढंगसे चित्रित किया है - जिसका साहित्यिक दृष्टिसे कुछ महत्त्व नहीं है । तब प्रभावकचरितकारने उस वर्णनको बहुत ही संगत, संयत और परिमित रूपमें आलेखित किया है जो बहुत कुछ साहित्यिक मूल्य रखता है । लेकिन प्रभावकचरितकारने इसका कुछ सूचन नहीं किया कि चैत्यवासियोंकी ओरसे उनके पक्षका मुख्य नायक कौन था। तब सुमतिगणि और जिनपालोपाध्यायके प्रबन्धोंमें चैत्यवासीय पक्षनायकके रूपमें स्पष्टतया सूराचार्यका नाम निर्दिष्ट किया गया है। यों तो प्रभावकचरितमें सूराचार्यके चरितका वर्णन करनेवाला एक खतंत्र और विस्तृत प्रबन्ध ही प्रथित है जिसमें उनके चरितकी बहुतसी घटनाओंका बहुत कुछ ऐतिहासिक तध्यपूर्ण वर्णन किया गया है; लेकिन उसमें कहीं भी उनका जिनेश्वरके साथ इस प्रकारके वाद-विवादमें उतरनेका कोई प्रसंग वर्णित नहीं है । परंतु हगको इस विषयमें उक्त प्रबन्धकारोंका कथन विशेष तथ्यभूत लगता है । प्रभावकचरितके वर्णनसे यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियोंके एक बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशाली अग्रणी थे । ये पंचासर पार्श्वनाथके चैत्यके मुख्य अधिष्ठाता थे । खभावसे बडे उदग्र और वाद-विवादप्रिय थे । अतः उनका इस वाद-विवादमें अग्ररूपसे भाग लेना असंभवनीय नहीं परंतु प्रासंगिक ही मालूम देता है । शास्त्राधारकी दृष्टिसे यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्यका पक्ष सर्वथा सत्यमय था अतः उनके विपक्षका उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था । इसलिये इसमें कोई सन्देह नहीं कि राजसभामें चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित हो कर जिनेश्वरका पक्ष राजसम्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्षके नेताका मानभंग होना अपरिहार्य बना । इसलिये, संभव है कि प्रभावकचरितकारको सूराचार्यके इस मानभंगका, उनके चरितमें कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने इस प्रसंगको उक्त रूपमें न आलेखित कर, अपना मौनभाव ही प्रकट किया हो। जिनेश्वर सूरिकी कार्यसफलता। जिनेश्वर सूरिका इस प्रकार अणहिलपुरमें प्रभाव जमनेसे और राजसम्मान प्राप्त करनेसे फिर इनका प्रभाव और और स्थानोंमें भी अच्छी तरह बढने लगा और सर्वत्र आदर-सम्मान होने लगा। जगह जगह इनके भक्त श्रावकोंकी संख्या बढती रही और उनके वसतिखरूप नये धर्मस्थानोंकी स्थापना होती रही । धीरे धीरे चैत्यवासियोंका इनकी तरफ जो उग्र विरोध-भाव था वह भी शान्त होने लगा और इनके अनुकरणमें और भी कई चैत्यवासी यतिजन क्रियोद्धार करनेमें प्रवृत्त होने लगे । इनका प्रचारक्षेत्र अधिकतर गुजरात, मालवा, मेवाड और मारवाड रहा मालूम देता है ।। इनके ऐसे प्रभावको देख कर इनके पास अनेक मुमुक्षु जनोंने दीक्षा लेकर इनका शिष्यभाव प्राप्त किया। इनके ये शिष्य भी बहुत सुयोग्य निकले जिससे इनका शिष्य संप्रदाय संख्यामें और गुणवत्तामें दिन-प्रतिदिन बढता ही गया । ये शिष्य-प्रशिष्य जैसे चारित्रशील थे वैसे ज्ञानवान् भी थे । अतः इन्होंने क्रियामार्गके प्रसारके साथ साथ साहित्यसर्जन और शास्त्रोद्धारका कार्य भी खूब उत्साह और उद्यमके साथ चालू रक्खा । इनके इन शिष्योंने कैसे कैसे ग्रन्थ आदि बनाये इसका कितनाक प्रासंगिक परिचय हम ऊपर दे ही चुके हैं । तालिका-रूपसे, इसके परिशिष्टमें, उनकी यथाज्ञात समप्र सूचि देनेका प्रयत्न किया गया है जिससे पाठक इनके शिष्योंकी साहित्योपासनाका दिग्दर्शन प्राप्त कर सकेंगे। इनके मुख्य मुख्य शिष्य-प्रशिष्योंकी नामावलि जो उक्त दोनों प्रबन्धोंमें दी गई है वह अन्यान्य साधनोंसे भी समर्थित होती है और उसका कितनाक परिचय हम ऊपर यथाप्रसंग दे चुके हैं। क. प्र.६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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