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________________ जिनेश्वर सूरिका समय और तत्कालीन परिस्थिति । किसी अज्ञात कर्तृक प्राचीन पूर्वाचार्यप्रबन्ध एवं अन्यान्य पट्टावलियां आदि अनेक ग्रन्थों- प्रबन्धोंमें कितना ही ऐतिहासिक वृत्तान्त ग्रथित किया हुआ उपलब्ध होता है । जिनेश्वर सूरिके समयमें जैन यतिजनोंकी अवस्था। इनके समयमें, श्वेताम्बर जैन संप्रदायमें, उन यतिजनोंके समूहका प्राबल्य था जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् जिनमन्दिरोंमें निवास करते थे । ये यतिजन जैन देवमन्दिर, जो उस समय चैत्यके नामसे विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हींमें अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पाठनादिमें प्रवृत्त होते और सोते बैठते । अर्थात् चैत्य ही उनका मठ या वासस्थान था और इसलिये वे चैत्य वासी के नामसे प्रसिद्ध हो रहे थे । इसके साथ उनके आचार - विचार भी बहुतसे ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकारके थे जो जैन शास्त्रोंमें वर्णित निर्ग्रन्थ - जैनमुनिके आचारोंसे असंगत दिखाई देते थे । वे एक तरहके मठपति थे । शास्त्रोक्त आचारोंका यथावत् पालन करनेवाले यति – मुनि उस समय बहुत कम संख्यामें नजर आते थे। अणहिल्ल पुरमें चैत्यवासियोंका प्रभाव । गजरातकी पुरातन राजधानी अणहिल्ल पुर, जो उस समय सारे भारत वर्षमें एक प्रधान नगरी समझी जाती थी और जो समृद्धि और संस्कृतिकी दृष्टिसे बडी ख्याति रखती थी, जैन धर्मका भी एक बडा केन्द्रस्थान बनी हुई थी। जैन धर्मके सेंकडों ही देवमन्दिर उसमें बने हुए थे । हजारोंकी संख्या में वहां जैन श्रावक लोग वसते थे । व्यापार, कृषि और राजकारभारमें इन जैनोंका स्थान बहुत ऊंचा थासबसे अधिक अग्रगण्य था । भारतके सुन्दरतम स्थापत्यके एक अनन्य उदाहरण खरूप, आबू पर्वत परके आदिनाथके मन्दिरका एवं कुंभारियाके जैन मन्दिरोंका निर्मापक, महान् कलाप्रिय और गुजरातके साम्राज्यका प्रचण्ड रक्षक, महा दंडनायक विमल मंत्री आदि जैसे अनेक जैन श्रावक उस नगरके प्रमुख नागरिक माने जाते थे । शास्त्रकार शान्त्याचार्य, महाकवि सूराचार्य, मन्त्रवादी वीराचार्य आदि जैसे प्रभावशाली, प्रतिष्ठासंपन्न और विद्वदग्रणी चैत्यवासी यतिजन उस जैन समाजके धर्माध्यक्षत्वका गौरव प्राप्त कर रहे थे । जैन समाजके अतिरिक्त आम जनतामें और राजदरबारमें भी, इन चैत्यवासी यतिजनोंका बहुत बड़ा प्रभाव था । जैन धर्मशास्त्रोंके अतिरिक्त, ज्योतिष, वैद्यक और मन्त्र-तन्त्रादि शास्त्रों और उनके व्यावहारिक प्रयोगोंके विषयमें भी, ये जैन यतिगण बहुत विज्ञ और प्रमाणभूत माने जाते थे । धर्माचार्यके खास कार्यों और व्यवसायोंके सिवा, ये व्यावहारिक विषयों में भी बहुत कुछ योगदान किया करते थे । जैन गृहस्थोंके बच्चों की व्यावहारिक शिक्षाका काम प्रायः इन्हीं यतिजनोंके अधीन था और इनकी पाठशालाओंमें जैनेतर गण्य मान्य सेठ साहुकारों एवं उच्चकोटिके राजदरबारी पुरुषोंके बच्चे भी बडी उत्सुकता पूर्वक शिक्षालाभ प्राप्त किया करते थे। इस प्रकार राजवर्ग और जनसमाजमें इन चैत्यवासी यतिजनोंकी बहुत कुछ प्रतिष्ठा जमी हुई थी और सब बातोंमें इनकी धाक बैठी हुई थी। पर इनका यह सब व्यवहार, जैन शास्त्रकी दृष्टिसे यतिमार्गके सर्वथा विपरीत और हीनाचारका पोषक था । जैन शास्त्रोंके विधानके अनुसार जैन यतियोंका मुख्य कर्तव्य केवल आत्मकल्याण करना है और उसके आराधन निमित्त शम, दम, तप आदि दशविध यतिधर्मका सतत पालन करना है । जीवन-यापनके निमित्त जहां कहीं मिल गया वैसा लूखा-सूका और सो भी शास्त्रोक्त विधिके अनुकूल - भिक्षान्नका उपभोग कर, अहर्निश ज्ञान-ध्यान निमग्न रहना और जो कोई मुमुक्षु जन अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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