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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। १. प्रस्तुत कथाकोष प्रकरणका प्रकाशन । ई स. १९३२ के ग्रीष्मकालमें, दो महिने हमने पाटणमें व्यतीत किये और 'सिंघी जैन २. ग्रन्थमाला में प्रकाशित करने लायक कई ग्रन्थ वहांके भण्डारोंमेंसे प्राप्त किये । यह ‘क था कोष प्रकरण'भी उनमेंसे एक था। __ जैन कथा-साहित्य बहुत विशाल है । प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और प्राचीन देशभाषामें लिखे गये इस विषयके साहित्यके अनेक ग्रन्थ भण्डारोंमें भरे पडे हैं । भारतवर्षके प्राचीन इतिहास, समाज, भाषा और संस्कृतिके अध्ययनकी दृष्टिसे इन कथाग्रन्थोंका अन्वेषण, संशोधन और प्रकाशन बहुत ही महत्त्व रखता है । विगत दो-ढाई हजार वर्षोंकी भारतीय संस्कृतिका जैसा प्रासंगिक और प्रामाणिक चित्र इन जैन कथाप्रन्थोंमेंसे प्राप्त हो सकता है वैसा अन्य किसी प्रकारके ग्रन्थोंमेंसे नहीं । परन्तु खेदका विषय यही है कि हमारे भारतीय विद्वानोंको इस प्रकारके साहित्यकी न तो कोई समुचित जानकारी ही है और न उनमें इसके अन्वेषणकी और अवलोकनकी चाहिये वैसी मार्मिक दृष्टि ही है। जर्मन विद्वानोंने इस विषयके महत्त्वको कोई तीन-चार बीसीयोंसे पूर्व ही अच्छी तरह पहचान लिया था और डॉ. वेबर, डॉ. लॉयमान, डॉ. याकोबी, डॉ. ब्युल्हर, डॉ. हर्टेल आदि जैसे समर्थ भारतीय-विद्या-विज्ञ विद्वानोंने छोटेबडे ऐसे कई जैन कथाग्रन्थोंका संशोधन, संपादन, समालोचन और समीक्षण आदि करके इस विषयकी ओर विद्वानोंका लक्ष्य आकर्षित किया था । डॉ. हर्टेल, जिन्होंने संस्कृत पञ्चतन्त्रकी जगद्व्यापी कथाओंका अद्भुत अध्ययन किया और उन पर जर्मन तथा इंग्रेजीमें कई बडे बडे ग्रन्थ लिखे, जैन कथासाहित्वका भी सबसे अधिक सूक्ष्म और विस्तृत अध्ययन किया और इस विषयके महत्त्वको प्रकाशमें रखनेके लिये अनेक निबन्ध एवं पुस्तक-पुस्तिकाएं प्रकट की । इन जैन कथाग्रन्थोंका ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से क्या वैशिष्टय है, इसका दिग्दर्शन भी उन्होंने अपने निबन्धोंमें ठीक ठीक कराया है । डॉ. हर्टेलके निबन्धोंके अवलोकनसे हमारे मनमें यह इच्छा पैदा हुई, कि जैन भण्डारोंमें ऐसे जो अनेक कथा-संग्रहात्मक ग्रन्थ छिपे हुए पडे हैं उनको प्रकाशमें लानेसे एक तो जैन साहित्यका महत्त्व प्रकाशमें आएगा; और दूसरा, भारतकी प्राचीन संस्कृतिविषयक साहित्यसामग्रीके अभिलाषियोंको इस अपूर्व निधिका परिचय प्राप्त होगा। इस दृष्टिको लक्ष्य कर, हमने भिन्न भिन्न ग्रन्थभण्डारोंमें प्राप्त होनेवाले ऐसे अनेक कथासंग्रह संगृहीत किये हैं - और अब भी किये जा रहे हैं एवं उन्हें यथासाध्य प्रकाशमें लानेका प्रयत्न कर रहे हैं । इसी प्रयत्नके फलखरूप आज यह प्रन्थ विद्वानोंके करकमलमें उपस्थित हो रहा है । प्रस्तुत ग्रन्थकी प्राप्त प्रतियां। पाटणके भण्डारोंमेंसे हमें इस ग्रन्थकी दो पुरानी प्रतियां उपलब्ध हुई जिनको हमने A और 'B की संज्ञा दे कर, पाठभेदोंका उद्धरण करनेमें तत्तन्नामसे उनका उपयोग किया है । प्रतियां दोनों ही प्रायः अशुद्धप्राय थीं । इन प्रतियों पर लेखनकालका कोई निर्देश भी नहीं मिला । परंतु इनकी स्थिति देखते हुए मालूम होता है, कि विक्रमीय १६ वीं शताब्दीकी लिखी हुई होनी चाहिये । क. प्र.१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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