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________________ सिंघी जैन ग्रन्थ माला । हिंदू एकेडेमी, दोलतपुर ( बंगाल ). रु० १५०००) तरक्की - उर्दू बंगाला. ५०००) हिंदी - साहित्य परिषद्द्भवन ( इलाहाबाद ) १२५००) विशुद्धानंद सरस्वती मारवाडी हॉस्पीटल, कलकत्ता. १००००) एक मेटर्निटी होम कलकत्ता. २५००) बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी. २५००) जीयागअ हाइस्कूल. ५०००) जीयागअ लण्डन मिशन हॉस्पीटल. ६०००J कलकत्ता- मुर्शिदाबाद जैन मन्दिर. ११०००) जैनधर्मप्रचारक सभा, मानभूम . ५०००) जैनभवन, कलकत्ता. १५०००) जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, आगरा. ७५००) जैन मंदिर, आगरा. ३५००) जैन हाइस्कूल, अंबाला. २१०००) जैन प्राकृतकोष के लिये, २५००) भारतीय विद्याभवन, बंबई. १००००) इसके अतिरिक्त हजार-हजार, पाँच-पाँचसोकीसी छोटी मोटी रकमें तो उन्होंने सैंकडों की संख्या में दी हैं, जिसका योग कोई डेढ दो लाख से भी अधिक होगा । 6 साहित्य और शिक्षणकी प्रगति के लिये सिंघीजी जितना उत्साह और उद्योग दिखलाते थे, उतने ही के सामाजिक प्रगति के लिये भी प्रयत्नशील थे । अनेक बार उन्होंने ऐसी सामाजिक सभाओं इत्यादि में प्रमुख रूपसे भाग ले करके अपने इस विषयका भान्तरिक उत्साह और सहकारभाव प्रदर्शित किया था । सन् १९२६ में बंबई में होनेवाली जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्सके खास अधिवेशनके वे सभापति बने थे । उदयपुर राज्यमें आये हुए केसरीयाजी तीर्थकी व्यवस्थाके विषय में स्टेटके साथ जो प्रश्न उपस्थित हुआ था उसमें उन्होंने सबसे अधिक तन, मन और धनसे सहयोग दिया था। इस प्रकार वे जैन समाज के हितकी प्रवृत्तियों में यथायोग्य सम्पूर्ण सहयोग देते थे; परंतु इसके साथ वे सामाजिक मूढता और साम्प्रदायिक कट्टरता के पूर्ण विरोधी भी थे । धनवान और प्रतिष्ठित गिने जाने वाले दूसरे रूढिभक्त जैनोंकी तरह वे संकीर्ण मनोवृत्ति या अन्धश्रद्धाकी पोषक विकृत भक्तिसे सर्वथा परे रहते थे । आचार, विचार एवं व्यवहार में वे बहुत ही उदार और विवेकशील थे । 1 उनका गाईस्थ्य जीवन भी बहुत सादा और साविक था । बंगालके जिस प्रकारके नवाबी गिने जाने वाले वातावरण में वे पैदा और बडे हुए थे उस वातावरणकी उनके जीवन पर कुछ भी खराब असर नहीं हुई थी और वे लगभग उस वातावरणसे बिलकुल अलिप्त जैसे थे । इतने बड़े श्रीमान् होने पर भी, श्रीमंताइके - धनिकता के बुरे विलास या मिथ्या आडम्बरले वे सदैव दूर रहते थे । दुर्व्यय और दुर्व्यसनके प्रति उनका भारी तिरस्कार था । उनके समान स्थितिवाले धनवान जब अपने मोज-शौक, आनंद-प्रमोद, विलास - प्रवास, समारम्भ- महोत्सव इत्यादिमें लाखों रुपये उड़ाते थे तब सिंघीजी उनसे बिलकुल विमुख रहते थे । उनका शौक केवल अच्छे वाचन और कलामय वस्तुओंके देखनेका तथा संग्रह करनेका था । जब देखो तब, वे अपनी गादी पर बैठे बैठे साहित्य, इतिहास, स्थापत्य, चित्र, विज्ञान, भूगोल और भूगर्भविद्यासे सम्बन्ध रखने वाले सामयिकों या पुस्तकों को पढते ही दिखाई दिया करते थे । अपने ऐसे विशिष्ट वाचनके शौकके कारण वे अंग्रेजी, बंगाली, हिंदी, गुजराती आदिमें प्रकाशित होने वाले उच्च कोटिके, उक्त विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाले विविध प्रकारके सामयिक पत्रों और जर्नलों को नियमित रूपसे मंगाते रहते थे। ऑर्ट, आर्किऑलॉजी, एपीग्राफी, ज्योग्रॉफी, आइकॉनोग्रॉफी, हिस्टरी और माइनिङ्ग आदि विषयोंकी पुस्तकोंकी उन्होंने अपने पास एक अच्छी लाइब्रेरी ही बना ली थी । Jain Education International वे स्वभावसे एकान्तप्रिय और अल्पभाषी थे । व्यर्थकी बातें करनेकी ओर या गपें मारनेकी ओर उनका बहुत ही अभाव रहता था । अपने व्यावसायिक व्यवहारकी या विशाल कारभारकी बातों में भी वे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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