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________________ श्रीजिनेश्वरसूरिचरितवर्णन । [क० परिशिष्ट तेह नह पाटि श्रीवर्धमानसूरि जिणे मालवार्थी रचुंजय यात्रार्थ जातां संघसु रात्रे रोहिणीशकटमध्ये आकाशे बृहस्पतिप्रवेश देखी गच्छवृद्धि थाती जाणी समीपस्थ अन्य साधु-अभावे बद्दाख्य निज शिष्यनइ वासाभावेन छगण चूर्णीय वासक्षेप करी सूरिपद दीधउ । ततो गच्छवृद्धिः । जिणे १३ पातिसाह छत्र हालक चन्द्रावती नगरी स्थापक विमलदण्डनायक कारित श्रीअर्बुदाचलोपरि श्रीविमलवसही प्रासादि ध्यानबलि बालीनाह क्षेत्रपाल अनइ बज्रगय श्रीआदीश्वरनी मूर्ति प्रकट करी थापी । वली जिणे ६ मासतांइ आंबिल करी धरणेन्द्र प्रकट करी सूरिमंत्र शुद्ध कीधउ । आबू उपरि स्वर्गि पहुता । तेहनइ पाटि श्रीजिनेश्वर पूरि हूया । ते किम ? श्रीवर्धमानसूरि सरसइ पाटणि सान करी आवता जिनेश्वर बुद्धिसागर भाई । ब्रह्मणना मस्तकमांहि रही माछली दिखाडी । दया चित्तइ प्रतिबोधी दीक्षा लहि निकल्या । क्रमइ क्रमइ बेइ साधु भाई गीतार्थ हूया । वर्धमानसूरिइ जिनेश्वरसूरि पाटि थाप्या । बुद्धिसागरनइ आचार्यपद दीधउ । कल्याणमति महत्तरा कीधी । श्री जनेश्वरसूरि अणहिल्लपाटणि पहुता । तिहां सोम पुर हितन्इ घरे रह्या । पुरोहितनइ साहाय्यइ करी संवत १०८० वरसि दुर्लभराज सभामांहि ८४ चैत्यवासी साथि वाद करतां राजइ पुस्तिका आणावि भण्डारमांहि श्रीदशवैकालिकसूत्र पुस्तिका ते माहि - "अन्नत्थं पगडं लेणं०" ए गाथायइ करी चैत्यवासी जीता । राजाई कह्यउं ए अति खर। ते भणि खरतर बिरुद लाधउं । मरुदेवी गणिन्या अनशनेन ४० दिनस्थितायां श्रीजिनेश्वरेण समाधानमुत्पादितम् । भणितं च खोत्पत्तिस्थानं वाच्यम् । ततः खगोत्पन्नया श्रीसीमंधरवंदनार्थ गतया श्रीब्रह्म शान्तिः प्रोक्तः । श्रीगुरूणामिदं वाच्यम् -- 'म स ट स ट च' इति । कोऽर्थः । “मरुदेवी नाम अजा." १ "टक्कलयंमि वियाणे०" २ "टक्कउरे जिणवंदणं०" ३ श्रीजिनेश्वरसूरिनइ पाटि संवेगरंगशालाप्रकरणना करणहार श्रीजिनचन्द्रसूरि हुआ। तेहनइ पाटि श्रीवर्धमानसूरि तेरह पातिसाह छत्रोद्दालक चन्द्रावती नगरीथापक विमल दण्डनायक कारित श्रीआबू ऊपरि श्रीविमलवसही प्रासादि ध्यानबलि वालीनाह क्षेत्रपाल अनइ हीरामय आदीसरनी मूरति प्रगटि करी थापी । वली जिणे छम्मास ताई आंबिल करी धरणेंद्र प्रकट करी सूरमंत्र खरो करायओ। ___ एकदा प्रस्तावि श्रीवर्धमानसूरिइ सरसइ पाटणि सनान करी आवतां जिनेश्वर अनइ बुद्धिसागर बे भाइ ब्राह्मण तेहना माथामांहि रही मांछडी दिखाडी दया दीषानी प्रतिबोधी दीखीया । तेहनि बहिनि कल्याणमति ते पीण दीखी । क्रमइ बेई साधु गीतार्थ थया । वर्धमानसूरइ श्रीजिनेश्वरसूरिनइ पाटि थाप्या । बुद्धिसागरनइ आचारिजपद दीधउ । कल्याणमति महत्तरा कीधी । श्रीजिनेश्वरिसूरि अणहिल पाटणि पहुंची तिहां सोमपुरोहितनइ घरे रह्या । पुरोहितनइ साहाज्यइं करी संवत दस सय असीयइ श्रीदुर्लभराज सभामांहि चोरासी चैत्यवासीसुं वाद करतां राजपुत्रीयइ आणी भण्डारमांहि थी दशवैकालिक पोथी ते मांहि 'अन्नत्थ पगडं लेणं' इत्या दि गाथायइ करी चैत्यवासी खोटा करी जीता। राजायइ काउ ए अति खरा । तिहा जिनेश्वः सूरइ खरतर बिरुद लाधउ । * * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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