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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन- कथाकोश प्रकरण । १२१ एक दिन वहां विष्णुदत्त नामक ब्राह्मणने निष्कारण ही कुपित हो कर देशान्तरसे आये हुए सुव्रतसूरिके साधुओंको भिक्षानिमित्त फिरते देख कर, अपने छात्रों द्वारा उनको कडी धूपमें खडे करवा कर अटकमें रखा । धनदेव सेठने उनको देखा और वन्दन करके पूछा कि - 'भन्ते, आप क्यों इस तरह धूपमें खडे हैं ?' तब उनमें गुणचन्द नामक जो एक ज्येष्ठ साधु था उसने कहा - 'विष्णुदत्त ब्राह्मणने अपने छात्रों द्वारा हमको रोक रखा है और जाने नहीं देता है ?' वह ब्राह्मण अपने मकानमें उपर बैठा हुआ था उसको पुकार कर धनदेवने कहा कि - 'भाई, किसलिये साधुओं को सता रहा है ?" उसने कहा - 'इन्होंने मुझ पर कोई कार्मण प्रयोग कर रखा है, इसलिये ऐसा किया जा रहा है ।' सुन कर सेठने साधुओंसे कहा - ' जाईये भन्ते, आप अपने वसतिस्थानमें ।' फिर उसने अपने मनुष्य द्वारा उन छात्रोंको गलेसे पकडवाया तो वे चिल्लाने लगे । विष्णुदत्त मकानमें उपर रहा हुआ सेठको धमकाने लगा कि - 'अरे किराट ! ( वणिकजनों को कुत्सित भावसे सम्बोधन करना होता है तब इस निन्दासूचक किराट शब्दका व्यवहार किया जाता है ) क्यों वृथा मौत मांग रहा है ?' सुन कर सेठने उत्तर में कुछ नहीं कहा । साधु अपने स्थानमें चले गये और सेठ मी अपने घर गया । फिर सेठने मनमें सोचा, शास्त्रोंका उपदेश है कि - " सामर्थ्य के होने पर, आज्ञा भ्रष्टके कार्यकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । और यदि अनुकूल साधन हो तो उसको शिक्षा देनी - दिलानी चाहिये ।” सो इस वचनका स्मरण करता हुआ वह राजकुलमें गया; और राजासे कहने लगा कि - 'देव, पूर्वर्षियोंके ऐसे वचन हैं कि – अनार्य और निर्दय ऐसे पापी मनुष्यों द्वारा यदि तपखीजन सताये जायं, तो राजा पिताकी तरह उनकी रक्षा करे । ज्ञान, ध्यान, तपसे युक्त और मोक्षाराधनमें तत्पर ऐसे साधुओं की रक्षा करता हुआ राजा, उनके धर्म कर्ममेंसे छठवां भाग प्राप्त करता है' - इत्यादि । सुन कर राजाने पूछा - 'सेठ ! क्या बात है ? सेठने कहा - 'देव ! विष्णुदत्त ब्राह्मणने अपने छात्रों द्वारा साधुओंको कडी धूपमें खडा करवा कर उनको कष्ट पहुंचाया है । ऐसा तो किसी अराजक तंत्रमें हो सकता है । महाराजके राजशासनमें तो आज तक ऐसी कोई नीति नहीं देखी गई है। इसमें अब आप जो करें सो प्रमाण है ।' सुन कर राजाने कोटवालको बुलाया और आज्ञा की कि - 'उस डोड्डे को ( जिस तरह वणिकके लिये उपर्युक्त 'किराट' कुत्सावाची शब्द है इसी तरह ब्राह्मण के लिये यह ' डोड्ड' कुत्सावाची शब्द है ) जल्दी बुला कर लाओ ।' इसी बीच में वह विष्णुदत्त भी बहुतसे डोड्डों को साथमें ले कर राजकुलके द्वार पर आ कर खड हो गया । प्रतिहारके निवेदन करने पर वे सभाभवनमें गये । 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवा इत्यादि प्रकारका आशीर्वाद देते हुए राजाको अक्षत (चावल) समर्पित करने लगे । राजाने उनका स्वीकार नहीं किया । फिर वे ब्राह्मण जमीन पर बैठ गये । राजाने कहा - 'क्या राजा तुम हो या मैं हूं ?' ब्राह्मणोंने कहा – 'किसलिये यह प्रश्न किया जा रहा है ? ' राजाने कहा - 'तुम राजाकी तरह व्यवहार कर रहे हो इसलिये ।' ब्राह्मणोंने पूछा - 'किसने और कहां ?" तब राजा ने पूछा कि - 'किसलिये तुमने साधुओं को क्रेशित किया है ?" क० प्र० १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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