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________________ १०६ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । यह सावद्याचार्यका कथानक संकलित किया गया है वह एक पुराना कथानक है । कुन्तला रानीका कथानक भी शायद पुरातन हो । क्यों कि इस कथानकका उल्लेख अन्य ग्रन्थकारोंने भी किया है । इस कथानककी वस्तुसे जिनमन्दिरोंके बनवानेके विषयमें जिनेश्वर सूरिका कैसा अभिमत था और उनके समयमें जैन मन्दिरोंकी क्या व्यवस्था चल रही थी तथा जैन श्रावकों में मन्दिरोंके बारेमें कैसा ममत्वभाव और पक्षापक्षीका संघर्ष होता रहता था, इसका चित्र हमें देखनेको मिलता है । इसमें कहा गया सावद्याचार्यका कथानक बहुत सूचक है । सावद्याचार्यवाली घटना किस समय घटी थी इसका कोई ज्ञापक समय जिनेश्वर सूरिको ज्ञात नहीं था; तथा जिस कालिकश्रुतके आधार पर उन्होंने इस कथानकका संकलन किया है उसमें भी इसके समयका कोई सूचक निर्देश न होनेसे इस घटना को अतीतकालीन किसी अवसर्पिणीकालमें होनेवाली बतलाई गई है । परंतु हमारी ऐतिहासिक दृष्टि हमें स्पष्ट बतलाती है कि यह घटना किसी अनन्तकाल पहलेके अवसर्पिणीकालकी नहीं है परंतु इसी वर्तमान अवसर्पिणीकालकी है । जिनेश्वर सूरिने यद्यपि कालिकश्रुतोक्त कथानकका अविकल भावानुवाद ही अपने वर्णन में प्रथित करनेका प्रयत्न किया है, तथापि अज्ञातरूपसे - या अपने कथनको अविसंवादी बनानेकी दृष्टिसे - उनके कथन में, एक ऐसा ऐतिहासिक विसंवादी उल्लेख निबद्ध हो गया है जो हमको इस घटनाका ऐतिह्य तथ्य सूचित कर देता है । यह उल्लेख वह है जिसमें जिनेश्वर सूरिने यह कहा है कि कुवलयप्रभ सूरि अर्थात् सावद्याचार्यने, उन वसतिवासी साधुओंको आगमका व्याख्यान सुनाना प्रारंभ किया, तब उन्होंने अपने कंठस्थ सूत्रपाठ ही का उच्चारण कर उसपर अपना व्याख्यान करनेका क्रम रखा था - 'क्यों कि उस समयतक पुस्तक लिखे नहीं गये थे।' इस कथनमें पुस्तक लेखनविषयक जो यह सूचन है वह स्पष्ट रूपसे - देवर्द्धिगणी द्वारा वलभीमें वि. सं. ५१० के आसपास जो वर्तमान जैनागम पुस्तकारूढ किये गये, और उसके पहले जैन श्रमणोमें आगमका सूत्रपाठ प्रायः कण्ठस्थ रूपसे ही परंपरागत चला आता रहता था - यह जो जैन इतिहासकी सर्वमान्य और सर्वविश्रुत श्रुतपरंपरा है, उसीका निर्देश करता है । जिनेश्वर सूरिके मनमें तो यही ऐतिहासिक तथ्य रममाण हो रहा था, लेकिन कालिकश्रुतोक्त कथनका अविकल अनुवाद करनेकी दृष्टिसे उनको इस घटनाका वर्णन, किसी अतीतानन्तकालीन अवसर्पिणीमें होनेका निबद्ध करना पडा । इस विषय में बहुत कुछ विचार-विमर्श करने जैसा है, लेकिन उसका यहां पर विशेष अवकाश नहीं है, अतः सूचनमात्र करके ही 'इत्यलं प्रसंगेन' कहना उचित होगा । संप्रदाय भेद होनेके सूचक कथानक यति - मुनियों में जो संप्रदायभेद होते रहते हैं उनमें प्रायः मुख्य कारण तो परस्पर व्यक्तिगत ईर्ष्या ही बनती रहती है । किसी आचार्य या गुरुजन द्वारा, किसी समर्थ व्यक्तिका, किसी-न-किसी कारणसे, कुछ अपमान हो गया या स्वकीय अपेक्षित कार्य सिद्ध न हुआ, तो वह व्यक्ति फिर उस आचार्य या गुरुजनमें दोषारोपण करनेकी और उसके द्वारा अपना विशेषत्व या महत्त्व ख्यापन करनेकी चेष्टा करना प्रारंभ करता है और उसके लिये किसी-न-किसी सैद्धान्तिक भेदकी सृष्टि करके अपना पक्ष बनाना चाहता है । कुछ भक्त लोग, चाहे जिस कारण से जब उसके पक्षके पोषक बन जाते हैं, तब वह फिर अपने पक्षको नये संप्रदाय, समुदाय, गच्छ या गण इत्यादिके रूपमें संगठित करके, पुराने शास्त्रोंके कुछ अस्पष्ट कथनों का अथवा परस्पर साधकबाधक प्रमाणोंका, अपने अभीष्ट विचारानुसार संदर्भ बिठा कर एवं अपने विपक्षके + देखो, सन्देह दोलावलि प्रकरण- जिनपतिसूरिकृत, पृ. ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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