SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन -कथाकोश प्रकरण । ९५ जैनाचार्य, जो चार ज्ञानके धारक थे, अपने बहुतसे शिष्योंके साथ आये और नगरके बहार सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ठहरे । उनका आगमन सुन कर राजा अपने पूरे राजसाही ठाठके साथ उनको वन्दन करने गया और यथोचितरूपसे वन्दनादि कर वह आचार्यके सन्मुख धर्मोपदेश सुननेके लिये बैठ गया। उस समय, जनप्रवाद सुन कर उस सभामें, एक अन्धा मनुष्य, एक छोटे लडके द्वारा हाथ पकडा हुआ वहां आ कर एक किनारे बैठ गया । वह अन्धा फटे-तुटे कपडे पहने हुआ था। उसके सारे शरीर पर मक्खियां भिनभिना रही थीं । पसीने और मैलसे भरे हुए उसके शरीरसे बदबू फैल रही थी। उसे देख कर तरुणियोंको उद्वेग होता था, कुमारोंको वह क्रीडाका घरसा प्रतीत होता था, यौवनोन्मत्तोंको उपहासका स्थान मालूम देता था और विवेकी जनोंको करुणाका पात्र एवं पापफलका मूर्तिमान् दृष्टान्त ज्ञात होता था । राजाने उसे देख कर, कुतूहलभावसे आचार्यसे पूछा कि- 'भगवन् , इसने जन्मान्तरमें ऐसा क्या पाप किया था जो ऐसे दुःखित जन्मको प्राप्त हुआ है.' आचार्यने राजाके प्रश्नके उत्तरमें उसके पूर्व जन्मकी इस प्रकार कथा कहनी शुरू की। _इस भारत वर्षकी अयोध्या नामक नगरीमें पूर्व कालमें चन्द्रकेतु राजा राज्य करता था । उस नगरीमें धवल, भीम और भानु नामके तीन व्यापारी रहते थे जो परस्पर स्नेहानुबद्ध हो कर समान आय-व्ययवाले और सहकार भावसे व्यापार-व्यवसाय किया करते थे। वे श्रावकधर्मका पालन करते थे। वहां पर एक समय अजितसेन नामके आचार्य आये जो नगरके नंदन नामक उद्यानमें ठहरे । नगरमें समाचार पहुंचे कि ऐसे ऐसे एक आचार्य आये हैं । सुन कर नगरके अन्यान्य जनोंके साथ राजा उनको वन्दन करने गया । धवल, भीम और भानु नामक तीनों मित्रश्रावक भी वहां पहुंचे । सभी सूरिको वन्दनादि कर धर्मोपदेश सुनने बैठ गये । आचार्यने अपने उपदेशका विषय पसन्द किया मिथ्यात्वका खरूप-वर्णन । (१) आभिग्रहिक, (२) अनभिग्रहिक, (३) आभिनिवेशिक, (४) सांशयिक, और (५) अनाभोगिक ऐसे पांच प्रकारके मिथ्यात्वोंका वर्णन करते हुए उपसंहारमें सूरिने कहा कि यह पांचों ही प्रकारका जो मिथ्यात्व है वह स्थूल विचारसे है, परमार्थसे तो जो विपर्यास है वही मिथ्यात्व है । वह विपर्यास इस प्रकारका समझना चाहिये । जैसे कि, किसी जिनमन्दिरके विषयमें कोई यह सोचे कि यह मन्दिर न तो मैंने बनवाया है और न मेरे किन्हीं पूर्वपुरुषोंने बनवाया है । इसलिये इसमें पूजा-संस्कार आदि करनेके लिये मुझे क्यों आदर बताना चाहिये ? अथवा कोई किसी मन्दिरमें प्रतिष्ठित मूर्तिके विषयमें ऐसा सोचे कि यह मूर्ति मैंने अथवा मेरे पूर्वजोंने बनवाई है इसलिये इसकी पूजादिमें मुझे उत्साहित होना ठीक है लेकिन दूसरोंकी बनाई मूर्तिके लिये वैसा उत्साह बतानेसे क्या लाभ ? इस प्रकारका विचार करके जो कोई मन्दिरादिमें पूजादि करता है उसकी वह प्रवृत्ति सर्वज्ञ (जिनभगवान )के मतानुसार संगत नहीं है । क्यों कि सभी मूर्तियों में एक अरिहंतका ही व्यपदेश किया जाता है । यदि वह अरिहंत भी परकीय समझा जाय तो फिर पत्थर, लेप्य (प्लास्टर ) और पित्तलादि पदार्थ ही पूजनीय हो जायेंगें । इस प्रकार पत्थरादिकी पूजा-अर्चा करनेसे कोई कर्मक्षय नहीं होता, कर्मक्षय तो तीर्थंकर विषयक गुणके पक्षपातके कारण होता है । नहीं तो, इस प्रकारका पत्थरादिका सद्भाव तो शंकर आदिके बिंबोंमें भी विद्यमान है इसलिये उनका भी वन्दन कर्मक्षयका कारण होगा । इस तरह मत्सरभावके कारण दूसरोंके बनाये हुए मन्दिरोंमें पूजादिके करने-करानेमें विघ्न करनेवालोंका महामिथ्यात्व ही समझना चाहिये । वैसे प्राणीको तो ग्रन्थिभेद भी संभवित नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy