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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । उनके शिष्य समुदायमें जो कितनेक तरुणवयस्क श्रमण थे वे धनदेवके विषयमें सुन कर परस्पर बातें करने लगें कि- 'अरे, क्या अपनमेंसे किसी के अंदर विद्या और विज्ञानकी कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो इस धनवान् धनदेवके पाससे अन्न, वस्त्र, कंबलादि कुछ दिला सके ?' यह सुन कर एक साधुने कहा'मेरे पास वैसी विद्या है जिससे मैं ये चीजें दिला सकता हूं। परंतु वह विद्यापिण्ड दोषसे दूषित होगा; अतः वह साधुओंके लिये अकल्पनीय है । यदि इस पर भी आप लोगोंकी यह इच्छा हो कि उससे कुछ संयममें लाभ ही होगा, तो मैं वैसा प्रयोग कर सकता हूं।' अन्य साधुओंने कहा - 'कोई हर्ज नहीं है तुम प्रयोग करो। ___ तब उस साधुने अन्य दो साधुओंको उसके घर पर भेजे । खयं एकान्तमें रह कर विद्याका आह्वान करने लगा। विद्याबलसे अधिष्ठित हो कर, धनदेव उन आये हुए साधुओंको देखते ही ऊठ खडा हुआ और बोला- 'आज्ञा दीजिये भदन्त, मैं क्या सेवा करूं?' साधुओंने वस्त्र आदिकी याचना की। तब वह बडी भक्तिके साथ अच्छे अच्छे वस्त्र उनको देने लगा । रोकने पर भी न रुकना चाहा और कहने लगा और भी लीजिये, और मुझ पर अनुग्रह कीजिये ।' साधुओंको जितने वस्त्र आवश्यक थे उतने ले कर वे वापस लौटे और फिर उस विद्यावान् मुनिने अपनी विद्याका उपसंहरण किया । धनदेव जब स्वस्थमनस्क हुआ तो 'हा, दुष्ट दुष्ट !' ऐसा पुकारने लगा । सुन कर लोक इकट्ठे हो गये और पूछने लगे कि 'अरे, क्या हुआ ?' वह बोला – 'न जाने क्या हुआ, मैंने अपना सब घरका सार श्वेतपटों ( श्वेताम्बर साधुओं )को दे डाला है ।' सुन कर लोक कहने लगे-'यदि तैंने दिया और साधुओंने लिया तो इसमें साधुओंका क्या दोष है ? ऐसा कहते हुए तो तूं उस दानके फलसे भी वंचित होगा।' ___ इस प्रकार दान दे कर भी मनमें खिन्न होनेसे, उसको न तो कुछ पुण्य ही प्राप्त हुआ और न कुछ कीर्ति ही मिली । इसलिये ऐसा न करना चाहिये । इस कथामें जैसा धनदेवकी श्रद्धाहीन मनोवृत्तिका चित्र आलेखित किया गया है वैसा ही युवक साधुओंकी कुतूहलात्मक एवं अपरिणत मनोवृत्तिका अंकित चित्र भी चिन्तनीय एवं आलोचनीय है । इन दोनों कथाओंका सार यह है कि श्रद्धाके विना दिया हुआ दान कुछ फलदायक नहीं होता। ___ जैनमन्दिरोंकी पूजा-विधिक विषयमें कुछ विचारणीय चर्चा । जैसा कि जिनेश्वर सूरिके चरितसे ज्ञात होता है उनके समयमें जैन संघमें, जैन मन्दिरोंकी स्थापना, पूजाप्रणाली और जैन साधुओंका उनके प्रति कर्तव्योपदेश आदि बातों पर, संघके भिन्न भिन्न अवान्तर गच्छों - संप्रदायोंमें अनेक प्रकारके वाद - विवाद चलते रहते थे । एक प्रकारसे जैन संघकी सर्व प्रकारकी प्रवृत्तियोंका और विचारोंका केन्द्रस्थान मन्दिरसंस्था ही बन रही थी। इस मन्दिरसंस्थाके विषयमें जैन संघमें - क्या साधुओंमें और क्या श्रावकोंमें - रोज नित्यनये प्रश्न उपस्थित होते रहते थे और फिर उन पर उनके बीचमें नाना प्रकारके शास्त्रीय और सामाजिक विधानों और परंपराओंकी तरह तरहकी आलोचना प्रत्यालोचना चला करती थी। एक तरफ, जैन साधुओंमें एक ऐसा पक्ष था, जो जिनमन्दिरोंकी स्थापना ही को सर्वथा जैनशास्त्रविरुद्ध बतला कर उसके उपदेष्टा और उपासक दोनोंहीको जैनाभास कहता और उन्हें मिथ्यामति गिनता था। कोई दूसरा पक्ष, जैन मन्दिरकी स्थापनाको तो शास्त्रसम्मत मानता था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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