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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । इससे प्रवचन देवता तुझ पर कुपित हुई कि-ऐसा करके तुझने आर्याधर्मको लधुतासे दूषित किया है और अतएव तुझे इस दुष्कृत्यका फल मिलना चाहिये । इसलिये उसने तेरे आहारमें कुष्ठजनक योग (वस्तु) मिला दिया और उससे तेरा शरीर ऐसा हो गया । इसमें पानीका कोई दोष नहीं है ।' सुन कर सब आर्याओंने आलोचना की । रज्जाने पूछा - 'भगवती ! मैं भी शुद्ध हो सकती हूं ? ।' केवली (आर्या ) ने कहा- 'क्यों न शुद्ध हो सकती है, यदि कोई प्रायश्चित्त दे तो ।' इस पर वह बोली 'भगवती, आप खयं केवली हैं, तो फिर आपसे अधिक अन्य कौन समर्थ हो सकता है ?' केवलीने कहा - मैं भी दे सकती हूं, यदि शुद्धिके योग्य कोई प्रायश्चित्त देखू तो। किंतु तैंने जिस कुवचन द्वारा तीर्थकरकी आशातना की है और उससे जो कर्मबन्ध हुआ है वह तो किसी प्रायश्चित्तसे छूट नहीं सकता - वह तो अवश्य भोगना ही पडेगा।' इत्यादि । ___ इससे वह दत्त कहता है कि- 'हे महानुभावो, यदि यह बात सच जानो तो फिर क्यों कहते हो कि प्रायश्चित्त लो । इस कथानकके अनुसार तो इसके लिये कोई प्रायश्चित्त ही नहीं हो सकता । । तब जल्लने पूछा- 'इसमें तीर्थंकरकी क्या आशातना हुई है।' दत्तने कहा- 'सुनो, तुमने कहा कि कोई साधु नहीं है । भगवान् वर्द्धमान खामीने कहा है कि भारतवर्ष में दुप्पसह आचार्यपर्यंत चारित्र रहैगा । सो तुमारे कथनके मुताबिक भगवान मृषावाद बोलनेवाले हुए । और फिर जो ये धर्मा और केका आदि श्रावकजन, जिनकी इच्छा प्रव्रज्या लेनेकी हो रही है, इनके मनमें भगवानके वचनमें विपर्यासभाव पैदा होगा । जैसा कि तुमने कहा कि-एक शीलांगके माशसे सभी शीलांगोंका नाश होता है तो फिर प्रव्रज्या लेनेसे क्या फल मिलेगा। इससे ये प्रव्रज्याविमुख बनेंगे । ऐसे अनेकोंके प्रव्रज्याविमुख बनने पर शासनका विच्छेद होगा। जो प्रव्रज्याविमुख होंगे उनके मनमें कुविकल्प पैदा होनेसे वे मिथ्याभावको प्राप्त हो कर, अनन्त संसारमें परिभ्रमण करते रहेंगे। वे फिर उन अनन्त भवोंमें अनन्त जीवोंका नाश करते रहेंगे जिसका पाप कर्मबन्ध तुमको भी लगेगा। फिर तुमने यह भी कहा कि कोई श्रावक भी नहीं है । सो ऐसा सुन कर जिनके मनमें कुछ धर्मकी श्रद्धा उत्पन्न होती होगी वे समझेंगे कि यह धर्म तो खाली विटंबनाओंका सारमात्र है; इसलिये इसका पालना निरर्थक ही है । इस प्रकार न साधु होंगे, न श्रावक होंगे और ना ही फिर जैन शासन होगा । इसलिये इस प्रकारका कथन करते हुए तुम्हारे लिये, रज्जा आर्याके उदाहरणकी तरह, कैसा कोई प्रायश्चित्त हो सकता है ? ___ इन श्रावकोंकी ऐसी विचित्र तर्काभासवाली बातें सुन कर पास नामक श्रावक जो कुछ विशेष जानकार था, बोला- 'अरे महानुभावो, तुम कोई स्वाध्याय क्यों नहीं करते हो; तुमको इन विचारोंसे क्या प्रयोजन है ? क्यों कि शास्त्रके आदेशानुसार जो गीतार्थ नहीं है उन्हें न तो कोई देशना करनी चाहिये, न कोई वस्तुविचार करना चाहिये । वह युक्तायुक्त कथनको ठीक नहीं जान सकता । और फिर जानते हुएको मी धर्माभिमुख मनुष्योंको विघ्नकारक हो ऐसा कोई कथम नहीं करना चाहिये । केवल सूत्रमात्रके पढनेसे अथवा जाननेसे और अर्थागमकी उपेक्षा करनेसे कोई जानकार नहीं कहा जा सकता । तुमने जो शीलांगविनाश आदिकी बातें की हैं उनके बारेमें बहुत कुछ उत्सर्ग-अपवादरूप शास्त्र-उपदेश है। ___ इत्यादि बातें कहते हुए उस पास श्रावकने फिर बकुश-कुशील आदि साधुओंके भेद बतलाये । और कहा कि- वर्तमानमें इन्हीं साधुओं द्वारा धर्मका प्रवर्तन होता रहता है । इस लिये तुमको गुणग्राही बन कर, सार-असार विभागका चिन्तन करते हुए, गुणोंका पक्षपात करना चाहिये । यथाशक्ति उनकी भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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