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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । मनोरथ श्रावककी कथाका सार । चंपा नामक नगरीमें मनोरथ नामक एक श्रमणोपासक रहता है जो चैत्य और साधुगणकी पूजामें सदैव रत और साधर्मिकोंमें वात्सल्यवाला है । एक दिन पौषधशालामें बहुतसे श्रमणोपासक इकट्ठे हो गये और उनमें परस्पर, दानके देने न देनेके विषयमें निम्न प्रकारका वार्तालाप चल पडा । एक वीर नामक श्रावकने कहा- 'गृहस्थोंके लिये दान ही एक परम धर्म है ।' तब सिद्ध नामक श्रावक बोला- 'यह ठीक है । किंतु जो द्रव्य-भाव ग्राहकशुद्ध है वही दान मोक्षका कारण है ।' तब निनने कहा- 'कैसा दान द्रव्यशुद्ध कहा जाता है ?' सिद्धने कहा- 'उद्गमादि दोष रहित जो दान दिया जाता है वह द्रव्यशुद्ध है ।' इसपर वीरने पूछा- 'तो क्या देश-कालकी अपेक्षासे उद्गमादिदूषित दान शुद्ध नहीं होता ? क्यों कि आगममें तो कहा है कि 'जयणा' पूर्वक आधाकर्म आहार भी कभी लेना उचित होता है । इसलिये ग्राहकशुद्ध होना ठीक है, द्रव्यशुद्धिसे क्या मतलब है ?' इस पर पुन्नाने पूछा- 'ग्राहकशुद्ध किसको कहते हैं ?' ___वीरने उत्तर दिया- 'मूलगुण-उत्तरगुणसे विशुद्ध ऐसा जो साधु है वह ग्राहक कहलाता है । उसको जो दिया जाता है वह ग्राहकशुद्ध कहा जाता है । इसका जिक्र भगवती सूत्रमें है । उससे ज्ञात होता है कि - अशुद्ध दान भी शुद्ध ग्राहकको दिया जाय तो उससे बहुत निर्जरा होती है । इसलिये ग्राहकशुद्ध दान ही शुद्ध दान है ।' इस पर दुग्गाने कहा- 'अरे भाई, ऐसा मत कहो, जो दायकशुद्ध है वही शुद्ध दान है ।' तब चच्च बोला-'दायकशुद्ध कैसा होता है ?' दुग्गने उत्तर दिया- 'जो दाता परम श्रद्धासे देता है वह दायकशुद्ध है । ग्राहकशुद्धि और द्रव्यशुद्धिसे क्या मतलब है ? देखो, रात्रिमें सिंहकेशरकी याचना करनेवाला कैसे विशुद्ध ग्राहक हो सकता है, तो भी दायकशुद्धिके होने पर ग्राहकको केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया था; और दाता भी बडी भारी निर्जराका भागी बना था । इसलिये दायकशुद्धिवाला दान ही मोक्षका कारण होता है।' इसपर मुग्ध नामक श्रावकने कहा- 'दायकशुद्धिके विना भी, ग्राहकशुद्धिके न होने पर भी, और द्रव्यशुद्धिके अभावमें भी, तुमने दानको मोक्षका कारण वर्णन किया है । इसलिये इसमें किसी प्रकारके विचारकी कोई आवश्यकता नहीं । जैसे तैसे भी दान मोक्षका निमित्त है।' राम बोला- 'अरे, ऐसा मत प्रलाप कर । इस तरह तो कार्पटिक और तटिक आदि हृष्टपुष्ट भीखमंगोंको दिया गया दान भी मोक्षका कारण कहना पडेगा ।' • मुग्ध बोला – 'इसमें जैन मतसे विरुद्ध क्या है ? दिया हुआ दान मोक्षका ही कारण होना चाहिये । नहीं तो फिर "जिन भगवान्ने कभी अनुकंपा दानका निषेध नहीं किया" ऐसा जो शास्त्रवचन है उसका क्या अर्थ होगा?' ___रामने कहा- 'छी: छीः, अरे महानुभाव इस तरह घोडेकी पूंछको बछडेको चिपकानेकी कोशिश न कर । सुन मैं तुझे एक लौकिक आख्यान इस विषयमें कहता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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