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________________ तृयीयकाण्डम् ३५३ अव्ययवर्गः ४ 'स्वाहा स्यात्तु हविर्दाने वौषट्श्वौषट्वषट् स्वधा ॥१३॥ तूष्णीं मौने मनागल्पे किञ्चिदीपत्तथैव च । तु हि चह तथा वै स्यात् किलापि पादपूरणे ॥१४॥ "प्राध्वं स्यादानुकूल्यार्थे व्यर्थके तु मुधा वृथा । दोषा नक्तं रजन्यां स्यात् दिवसे तु दिवा स्मृतम् ॥१५॥ विकल्पार्थे तु आहो स्याद् उताहो किमुतापि वा । वक्रे साचि" तिरः प्रोक्तं "प्रेत्यामुत्र भवान्तरे ॥१६॥ पौनः पुन्ये "मुहुः शश्वद् अभीक्ष्णमसकृत् पुनः । "दाग झटित्यजसा मंच सधः सपदि तत्क्षणे ॥१७॥ चिरार्थे चिररात्राय" चिरायादि प्रकीर्तितम् । (१) स्वाहा वोषद्, श्रीषद्, वषट्, स्वधा, ये सब हविष क्षेप अर्थ के लिये प्रयुक्त होते हैं । (२) 'तूष्णीम्' यह मौन अर्थ में। (३) 'मनाक किञ्चित्, ईषत, ये तीनों अल्प अर्थ, में । (४) तु, हि, च, ह, वै, किल, अपि, ये सब लोक की पा पूर्ति के लिये आते हैं। (५) प्राध्वम्, यह अनुकूल अर्थ में प्रयुक्त होता है । (६) 'मुधा, वृथा' ये दोनों व्यर्थ अर्थ में प्रयुक्त हैन है । ७) 'दोषा नक्तं' ये दोनों रात्रि अर्थ में हैं। (८) 'दिवा' यह शब्द दिन अर्थ में प्रयुक्त होता है । (९) 'आहो, उताहो, किमुत, वा' ये चारों विकल्प अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । (१०) 'साचि, तिर:' ये दोनों टेढा अर्थ में है । (११) 'प्रेत्य, अमुत्र' ये दोनों दूसरे भवरूप अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । (१२) 'मुहुः शश्वत्, अभीक्ष्णम्, अस-. कृत, पुनः,, इतने शब्द वारम्बार अर्थ में (१३) द्राक्, झटिति, अञ्जमो, ,मंक्षु, सद्यः, सपदि इतने शब्द तुरत अर्थ में प्रयुक्त होते है । (१४) 'चिररात्राय चिराय, चिरं, चिरेण, चिरात्, चिरे ये सब देर काल के लिये प्रयुक्त होते हैं । २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016064
Book TitleShivkosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherKarunashankar Veniram Pandya
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size13 MB
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