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________________ २९७ नानार्थवर्गः ३ वृक्षभिद्यपि न स्त्री स्यात् नाडी कालेऽपि षट्क्षणे। __ इति डान्ताः । नितान्त बलवत् स्थूल प्रगाढेषु दृढे स्त्रिषु ॥५४॥ प्रतिज्ञाऽतिशयौ बाढं प्रगाढं दृढकृच्छ्योः । 'व्यूढः पृथुल विन्यस्त संहतेष्वभिधेयवत् ॥५५॥ इति ढान्ताः । स्त्रैण गर्भेऽर्भके भ्रंणो बाणो वलि सुते शरे । स्पृहा पिपासयो स्तृष्णा जुगुप्सा करुणे घृणा ॥५६॥ भ्रूवो यदन्तराऽऽवते जी मेषादि लोमनि । "हरिणी हरिता हेम प्रतिमान मृगीष्वपि ॥५७॥ (१) 'नार्ड' नाल व्रणान्तर शिरा गण्डदूर्वा खर दूर्वा विशेष दम्भचर्या और षट्क्षणकाल अर्थ में स्त्री. । इति डान्ताः । (२) 'दृढ' नितान्त बलवान् स्थूल और प्रगाढ अर्थ में त्रि० । (३) 'बाद' प्रतिज्ञा अतिशय अर्थ में नपुं० । (४) 'प्रगाढ' दृढ और कृच्छ अर्थ में नपुं० । (५) 'व्यूढ' पृथुल विन्यस्त संहत में वाच्य'लिङ्ग (विशेष्यलिङ्ग) पु० । इति ढान्ताः। (६) 'भ्रण' गर्भ शिशु अर्थ में पु० । (७) 'बाण' बलिसुत 'एवं शर अर्थ में पु० । (८) 'तृष्णा' स्पृहा और पिपासा अर्थ में स्त्री० । (९) 'घृणा' जुगुप्सा और करुणा अर्थ में स्त्री० । (१०) "ऊर्णा' भौहों के अन्तराय में आवर्त में मेष शश उष्ट्र मृग आदि लोम अर्थ में स्त्रो० । (११) 'हरिणो' हरिता हेम प्रतिनिधि मृगी अर्थ में स्त्री। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016064
Book TitleShivkosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherKarunashankar Veniram Pandya
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size13 MB
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