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________________ आराधना कथाकोश सुनना, शास्त्राभ्यास करना केवल कुमार्ग में प्रवृत्त होनेका कारण है । जैसे मीठा दूध भी तूंबड़ीके सम्बन्धसे कड़वा हो जाता है । इन सब बातों को विचार क्षुल्लकने भव्यसेन के आचरण से समझ लिया कि ये नाम मात्रके जैनी हैं, पर वास्तव में इन्हें जैनधर्मपर श्रद्धान नहीं, ये मिथ्यात्वी हैं । उस दिनसे चन्द्रप्रभने भव्यसेनका नाम अभव्यसेन रक्खा । सच बात है दुराचारसे क्या नहीं होता ? क्षुल्लकने भव्यसेनकी परीक्षा कर अब रेवती रानीकी परीक्षा करनेका विचार किया। दूसरे दिन उसने अपने विद्याबलसे कमलपर बैठे हुए और वेदोंका उपदेश करते हुए चतुर्मुख ब्रह्माका वेष बनाया और शहरसे पूर्व दिशा की ओर कुछ दूरीपर जंगलमें वह ठहरा। यह हाल सुनकर राजा, भव्यसेन आदि सभी वहाँ गए और ब्रह्माजीको उन्होंने नमस्कार किया । उनके पावों पड़ कर वे बड़े खुश हुए। राजाने चलते समय अपनी प्रिया रेवती से भी ब्रह्माजी की वन्दनाके लिए चलने को कहा था, पर रेवती सम्यक्त्व रत्नसे भूषित थी, जिनभगवान् की अनन्यभक्त थी; इसलिए वह नहीं गई । उसने राजासे कहा - महाराज, मोक्ष और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रका प्राप्त करानेवाला सच्चा ब्रह्मा जिनशासन में आदिजिनेन्द्र कहा गया है, उसके सिवा अन्य ब्रह्मा हो ही नहीं सकता और जिस ब्रह्माकी वन्दना के लिए आप जा रहे हैं, वह ब्रह्मा नहीं है; किन्तु कोई घूर्त ठगनेके लिए ब्रह्माका वेष लेकर आया है । मैं तो नहीं चलूँगी । T दूसरे दिन क्षुल्लकने गरुड़पर बैठे हुए, चतुर्बाहु, शंख, चक्र, गदा आदिसे युक्त और दैत्योंको कँपानेवाले वैष्णव भगवान्का वेष बनाकर दक्षिण दिशा में अपना डेरा जमाया । तीसरे दिन उस बुद्धिमान् क्षुल्लकने बैलपर बैठे हुए, पार्वती के मुखकमलको देखते हुए, सिरपर जटा रखाये हुए, गणपति युक्त और जिन्हें हजारों देव आ आकर नमस्कार कर रहे हैं, ऐसा शिवका वेष धारण कर पश्चिम दिशाकी शोभा बढ़ाई । चौथे दिन उसने अपनी मायासे सुन्दर समवशरण में विराजे हुए, आठ प्रातिहार्यो से विभूषित, मिथ्यादृष्टियों के मानको नष्ट करनेवाले मानस्तंभादिसे युक्त, निर्ग्रन्थ और जिन्हें हजारों देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आ आकर नमस्कार करत हैं, ऐसा संसार श्र ेष्ठ तोर्थंकरका वेष बनाकर पूर्व दिशाको अलंकृत किया । तीर्थंकर भगवान्‌का आगमन सुनकर सबको बहुत आनन्द हुआ । सब प्रसन्न होते हुए भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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