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________________ उद्दायन राजाको कथा ५५ उद्दायन रौरवक नामक शहरके राजा थे, जो कि कच्छदेश के अन्तर्गत था । उद्दायन सम्यग्दृष्टि थे, दानी थे, विचारशील थे, जिनभगवान् के सच्चे भक्त थे और न्यायी थे । सुतरां प्रजाका उनपर बहुत प्रेम था और वे भी प्रजाके हित में सदा उद्यत रहा करते थे । उसकी रानीका नाम प्रभावती था । वह भी सती थी, धर्मात्मा थी । उसका मन सदा पवित्र रहता था । वह अपने समयको प्रायः दान, पूजा, व्रत, उपवास स्वाध्यायादिमें बिताती थी । उद्दायन अपने राज्यका शान्ति और सुखसे पालन करते और अपनी शक्ति के अनुसार जितना बन पड़ता, उतना धार्मिक काम करते । कहनेका मतलब यह कि वे सुखी थे, उन्हें किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं थी । उनका राज्य भी शत्रुरहित निष्कंटक था । एक दिन सौधर्मस्वर्गका इन्द्र अपनी सभा में धर्मोपदेश कर रहा था "कि संसारमें सच्चे देव अरहन्त भगवान् हैं, जो कि भूख, प्यास, रोग, शोक, भय, जन्म, जरा, मरण आदि दोषोंसे रहित और जीवोंको संसारके दुःखोंसे छुटानेवाले हैं, सच्चा धर्म, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दशलक्षण रूप है; गुरु निर्ग्रन्थ हैं; जिनके पास परिग्रहका नाम निशान नहीं और जो क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदिसे रहित हैं और वह सच्ची श्रद्धा है, जिससे जीवाजीवादिक पदार्थों में रुचि होती है । वही रुचि स्वर्गमोक्ष की देनेवाली है । यह रुचि अर्थात् श्रद्धा धर्ममें प्रेम करनेसे, तीर्थयात्रा करने, रथोत्सव करानेसे, जिनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार करानेसे, प्रतिष्ठा करानेसे, प्रतिमा बनवानेसे और साधर्मियोंसे वात्सल्य अर्थात् प्रेम करनेसे उत्पन्न होती है । आप लोग ध्यान रखिये कि सम्यग्दर्शन संसार में एक सर्व श्रेष्ठ वस्तु है ! और कोई वस्तु उसकी समानता नहीं कर सकती । यही सम्यग्दर्शन दुर्गतियोंका नाश करके स्वर्ग और मोक्षका देनेवाला है । इसे तुम धारण करो ।" इस प्रकार सम्यग्दर्शनका और उसके आठ अंगोंका वर्णन करते समय इन्द्रने निर्विचिकित्सा अंगका पालन करनेवाले लायन राजाकी बहुत प्रशंसा की । इन्द्र के मुँहसे एक मध्यलोकके मनुष्यकी प्रशंसा सुनकर एक बासव नामका देव उसी समय स्वर्गसे भारत में आया और उद्दायन राजाकी परीक्षा करनेके लिये एक कोढ़ी मुनिका देश बनाकर भिक्षा के लिये दोपहरहीको उद्दायनके महल गया । उसके शरीरसे कोढ़ गल रहा था, उसकी वेदनासे उसके पैर इधरउधर पड़ रहे थे, सारे शरीरपर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं और सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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