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________________ आराधना कथाकोश अनन्तमतीके देवांगना दुर्लभ रूपको देखकर उसपर मोहित हो गया। उसने भी उससे बहुत हाथाजोड़ी की, पर अनन्तमतीने उसकी बातोंपर कुछ ध्यान न देकर उसे भी फटकार डाला । पापी सिंहराजने अनन्तमतीका अभिमान नष्ट करनेको उससे बलात्कार करना चाहा। पर जो अभिमान मानवी प्रकृतिका न होकर अपने पवित्र आत्मीय तेजका होता है, भला, किसकी मजाल जो उसे नष्ट कर सके ? जैसे ही पापी सिंहराजने उस तेजोमय मूर्तिकी ओर पाँव बढ़ाया कि उसी वनदेवीने, जिसने एक बार पहले भी अनन्तमतीको रक्षा की थी, उपस्थित होकर कहाखबरदार ! इस सती देवीका स्पर्श भूलकर भी मत करना, नहीं तो समझ लेना कि तेरा जीवन जैसे संसारमें था ही नहीं। इसके साथ ही देवो उसे उसके पापकर्मोंका उचित दण्ड देकर अन्तहित हो गई। देवीको देखते हो सिंहराजका कलेजा कांप उठा। वह चित्रलिखेसा निश्चेष्ट हो गया। देवीके चले जानेपर बहुत देर बाद उसे होश हुआ। उसने उसी समय नौकरको बुलवाकर अनन्तमतीको जंगलमें छोड़ आनेकी आज्ञा दी। राजाकी आज्ञाका पालन हुआ। अनन्तमती एक भयंकर वनमें छोड़ दी गई। ___अनन्तमती कहाँ जायगी, किस दिशामें उसका शहर है, और वह कितनी दूर है ? इन सब बातोंका यद्यपि उसे कुछ पता नहीं था, तब भी वह पंचपरमेष्ठीका स्मरण कर वहाँसे आगे बढ़ी और फल फूलादिसे अपना निर्वाह कर वन, जंगल, पर्वतोंको लांघती हुई अयोध्यामें पहुंच गई । वहाँ उसे एक पद्मश्री नामकी आर्यिकाके दर्शन हुए। आयिकाने अनन्तमतीसे उसका परिचय पूछा। उसने अपना सब परिचय देकर अपनेपर जो-जो विपत्ति आई थी और उससे जिस-जिस प्रकार अपनी रक्षा हुई थी उसका सब हाल आर्यिकाको सुना दिया। आर्यिका उसकी कथा सुनकर बहत दुखी हुई। उसे उसने एक सती-शिरोमणि रमणी-रत्न समझ कर अपने पास रख लिया। सच है सज्जनोंका व्रत परोपकारार्थ हो होता है। उधर प्रियदत्तको जब अनन्तमतीके हरे जानेका समाचार मालूम हुआ तब वह अत्यन्त दुःखी हआ। उसके वियोगसे वह अस्थिर हो उठा । उसे घर श्मशान सरीखा भयंकर दिखने लगा । संसार उसके लिये सूना हो गया । पूत्रीके विरहसे दुखी होकर तीर्थयात्राके बहानेसे वह घरसे निकल खड़ा हुआ। उसे लोगोंने बहुत समझाया, पर उसने किसीकी बातको न मानकर अपने निश्चयको नहीं छोड़ा। कुटुम्बके लोग उसे घरपर न रहते देखकर स्वयं भी उसके साथ-साथ चले। बहुतसे सिद्धक्षेत्रों और अतिशय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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