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________________ ३८ आराधना कथाक ेश दुखी हुई । उसे संसारकी क्षणभंगुर लीला देखकर वैराग्य हुआ । वह उसी समय संसारका मायाजाल तोड़ ताड़कर वनश्री आर्यिका के पास साध्वी बन गई। सिंहसेनका पुत्र सिंहचन्द्र भी वैराग्यके वश हो, अपने छोटे भाई पूर्णचन्द्रको राज्यभार सौंपकर सुव्रत नामक मुनिराजके पास दीक्षित हो गया । साधु होकर सिंहचन्द्र मुनिने खूब तपश्चर्या की, शान्ति और धीरता के साथ परीषहोंपर विजय प्राप्त किया, इन्द्रियोंको वश किया और चंचल मनको दूसरी ओरसे रोककर ध्यानकी ओर लगाया । अन्तमें ध्यानके बलसे उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हुआ । उन्हें मन:पर्ययज्ञानसे युक्त देखकर उनकी माताने, जो कि इन्हीं के पहले आर्थिका हुई थीं, नमस्कार कर पूछा- साधुराज ! मेरी कूख धन्य है, वह आज कृतार्थ हुई, जिसने आपसे पुरुषोत्तमको धारण किया। पर अब यह तो कहिये कि आपके छोटे भाई पूर्णचन्द्र आत्महित के लिये कब उद्यत होंगे ? । उत्तर में सिंहचंद्र मुनि बोले- माता, सुनो तो मैं तुम्हें संसार की विचित्र लीला सुनाता हूँ, जिसे सुनकर तुम भी आश्चर्य करोगी । तुम जानती हो कि पिताजीको सर्पने काटा था और उसीसे उनकी मृत्यु हो गई थी । वे मरकर सल्लको वनमें हाथी हुए । वे ही पिता एक दिन मुझे मारनेके लिये मेरे पर झपटे, तब मैंने उस हाथीको समझाया और कहागजेन्द्रराज, जानते हो, तुम पूर्व जन्ममें राजा सिंहसेन थे और मैं प्राणोंसे भी प्यारा सिंहचन्द्र नामका तुम्हारा पुत्र था । कैसा आश्चर्य है कि आज पिता ही पुत्रको मारना चाहता है । मेरे इन शब्दोंको सुनते ही गजेन्द्रको जातिस्मरण हो आया पूर्वजन्मकी उसे स्मृति हो गई । वह रोने लगा, उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली । वह मेरे नामने चित्र लिखासा खड़ा रह गया । उसकी यह अवस्था देखकर मैंने उसे जिनवमंका उपदेश दिया और पंचाणुव्रतका स्वरूप समझाकर उस अणुव्रत ग्रहण करनेको कहा । उसने अणुव्रत ग्रहण किये और पश्चात् वह प्रामुक भोजन और प्रासुक जलसे अपना निर्वाह कर व्रतका दृढ़ता के साथ पालन करने लगा । एक दिन वह जल पीनेके लिये नदीपर पहुँचा । जलके भीतर प्रवेश करते समय वह कोचड़में फँस गया। उसने निकलनेकी बहुत चेष्टा की, पर वह प्रयत्न सफल नहीं हुआ । अपना निकलना असंभव समझकर उसने समाधिमरणकी प्रतिज्ञा ले ली । उस समय वह श्रीभूतिका जीव, जो मुर्गा हुआ था, हाथी के सिरपर बैठकर उसका मांस खाने लगा । हाथीपर बड़ा उपसर्ग आया, पर उसने उसकी कुछ परवा न कर बड़ी धीरताके साथ पंच नमस्कार मंत्रकी आराधना करना शुरू कर दिया, जो कि सब पापोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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