SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संजयन्त मुनि को कथा ३३ उसे उसने नागपाशसे बाँध लिया। इसके बाद उसे खूब मार पीटकर धरणेन्द्रने समुद्रमें डालना चाहा । धरणेन्द्रका इस प्रकार निर्दय व्यवहार देखकर एक दिवाकर नामके दयालु देवने उससे कहा- तुम इसे व्यर्थ ही क्यों कष्ट दे रहे हो ? इसकी तो संजयन्त मुनिके साथ कोई चार भवसे शत्रुता चली आती है । इसीसे उसने मुनिपर उपसर्ग किया था । धरणेन्द्र बोला- यदि ऐसा है तो उसका कारण मुझे बतलाइये ? दिवाकर देवने तब यों कहना आरंभ किया -- I पहले समय में भारतवर्ष में एक सिंहपुर नामका शहर था । उसके राजा सिंहसेन थे । वे बड़े बुद्धिमान् और राजनीतिके अच्छे जानकार थे । उनकी रानीका नाम रामदत्ता था । वह बुद्धिमती और बड़ी सरल स्वभावकी थी । राजमंत्रीका नाम श्रीभूति था । वह बड़ा कुटिल था । दूसरोंको धोखा देना, उन्हें ठगना यह उसका प्रधान कर्म था । 1 एक दिन पद्मखंडपुर के रहनेवाले सुमित्र सेठका पुत्र समुद्रदत्त भूतके पास आया और उससे बोला - "महाशय, में व्यापार के लिये विदेश जा रहा हूँ । दैवकी विचित्र लीलासे न जाने कौन समय कैसा आवे ? इसलिये मेरे पास ये पाँच रत्न हैं, इन्हें आप अपनी सुरक्षामें रक्खें तो अच्छा होगा और मुझपर भी आपकी बड़ी दया होगी। मैं पीछा आकर अपने रत्न ले लूँगा ।" यह कहकर और श्रीभूतिको रत्न सौंपकर समुद्रदत्त चल दिया । कई वर्ष बाद समुद्रदत्त पीछा लौटा । वह बहुत धन कमाकर लाया था । जाते समय जैसा उसने सोचा था, दैवकी प्रतिकूलतासे वही घटना उसके भाग्य में घटी । किनारे लगते-लगते जहाज फट पड़ा । सब माल असबाब समुद्र के विशाल उदरमें समा गया । पुण्योदयसे समुद्रदत्तको कुछ ऐसा सहारा मिल गया, जिससे उसकी जान बच गई। वह कुशलपूर्वक अपना जोवन लेकर घर लौट आया । दूसरे दिन वह श्रीभूति के पास गया और अपनेपर जैसी विपत्ति आई थो उसे उसने आदिसे अन्ततक कहकर श्रीभूतिसे अपने अमानत रखे हुए रत्न पीछे माँगे । श्रीभूतिने आँखें चढ़ाकर कहा - से रत्न तू मुझसे मांगता है ? जान पड़ता है जहाज डूब जानेसे तेरा मस्तक बिगड़ गया है । श्रीभूतिने बेचारे समुद्रदत्तको मनमानी फटकार बताकर और अपने पास बैठे हुए लोगों से कहा --- देखिये न साहब, मैंने आपसे अभी ही कहा ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy