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________________ ३३८ आराधना कथाकोश नाम-ध्यान ही छोड़ देना पड़ा। इसके बाद उस साधुको इन्होंने अपनी विद्या के बलसे वनमें एक बड़ा भारी महल खड़ा कर देना, झूला बनाकर उस पर झूलना आदि अनेक अचम्भे में डालनेवाली बातें बतलाई। उन्हें देखकर सुप्रतिष्ठ साधु बड़ा चकित हुआ। वह मनमें सोचने लगा कि जैसी विद्या इन चाण्डालोंके पास है ऐसी तो अच्छे-अच्छे विद्याधरों या देवों के पास भी न होगी । यदि यहो विद्या मेरे पास भी होती तो मैं भी तरह बड़ी मौज मारता । अस्तु, देखें, इनके पास जाकर मैं कहूँ कि ये अपनी विद्या मुझे भी दे दें। इसके बाद वह इनके पास आया और उनसे बोला- आप लोग कहाँसे आ रहे हैं ? आपके पास तो लोगों को कित करनेवाली बड़ी-बड़ी करामातें हैं ! आपका वह विनोद देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उत्तर में विद्युत्प्रभ विद्याधर ने कहा - योगीजी, आप मुझे नहीं जानते कि मैं चाण्डाल हूँ ! मैं तो अपने गुरु महाराज के दर्शन के लिए यहाँ आया हुआ था। गुरुजीने खुश होकर मुझे जो विद्या दी है, उसीके प्रभावसे यह सब कुछ में करता हूँ । अब तो साधुजीके मुँह में भी विद्यालाभ के लिए पानी आ गया । उन्होंने तब उस चाण्डाल रूपधारी विद्याधरसे कहा - तो क्या कृपा करके आप मुझे भी यह विद्या दे सकते हैं, जिससे कि मैं भी फिर आपकी तरह खुशी मनाया करूँ । उत्तरमें विद्याधर ने कहा- भाई, विद्याके देनेमें तो मुझे कोई हर्ज मालूम नहीं देता, पर बात यह है कि मैं ठहरा चाण्डाल और आप वेदवेदांग के पढ़े हुए एक उत्तम कुलके मनुष्य, तब आपका मेरा गुरु-शिष्य भाव नहीं बन सकता । और ऐसी हालत में आपसे मेरा विनय भी न हो सकेगा और बिना विनयके विद्या आ नहीं सकती। हाँ यदि आप यह स्वीकार करें कि जहाँ मुझे देख पावैं वहाँ मेरे पाँवोंमें पड़कर बड़ी भक्ति के साथ यह कहें कि प्रभो, आप होकी चरणकृपासे मैं जीता हूँ ! तब तो मैं आपको विद्या दे सकता हूँ और तभी विद्या सिद्ध हो सकती है। बिना ऐसा किये सिद्ध हुई विद्या भी नष्ट हो जाती है । उस साधुने ये सब बातें स्वीकार कर लीं । तब विद्युत्प्रभ विद्याधर इसे विद्या देकर अपने घर चला गया । इधर सुप्रतिष्ठ साधुको जैसे ही विद्या सिद्ध हुई, उसने उन सब लीलाओं को करना शुरू किया जिन्हें कि विद्याधर ने किया था । सब बातें वैसी ही हुईं देखकर सुप्रतिष्ठ बड़ा खुश हुआ । उसे विश्वास हो गया कि अब मुझे विद्या सिद्ध हो गई। इसके बाद वह भोजन के लिए राजमहल आया । उसे देरसे आया हुआ देखकर राजाने पूछा- भगवन्, आज आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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