SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ आराधना कथाकोश सबेरा होने पर विष्णुदत्त, सोमशर्म मुनिके तपका प्रभाव देखकर चकित रह गया । उसको मुनि पर तब बड़ी श्रद्धा हो गई। उसने नमस्कार कर उनको प्रशंसामें कहा-योगिराज, सचमुच आप बड़े ही भाग्यशाली हैं। आपके सरोखा विद्वान् और धोर मैंने किसोको नहीं देखा । यह आपहोसे महात्माओंका काम है जो मोहपाश तोड़-तुड़ाकर इस प्रकार दुःसह तपस्या कर रहे हैं । महाराज, आपकी मैं किन शब्दों में तारीफ करूँ, यह मुझे नहीं जान पड़ता। आपने तो अपने जीवनको सफल बना लिया। पर हाय ! मैं पापी पापकर्मके उदयसे धनरूपी चोरों द्वारा ठगा गया। मैं अब इनके पैंचोले जालसे कैसे छूट सकूगा । दयासागर, मुझे बचाइये। नाथ, अब तो मैं आप होके चरणों की सेवा करूँगा। आपको सेवाको हो अपना ध्येय बनाऊँगा । तब हो कहीं मेरा भला होगा। इस प्रकार बड़ी देर तक विष्णुदत्तने सोमशर्म मुनिकी स्तुति की। अन्तमें प्रार्थना कर उनसे दीक्षा ले वह मुनि हो गया । जो विष्णुदत्त एक ही दिन पहले मुनिकी इज्जत, प्रतिष्ठा बिगाड़नेको हाथ धोकर उनके पीछा पड़ा था और मुनिको उपसर्ग कर जिसने पाप बाँधा था वही गुरुभक्तिसे स्वर्ग और मोक्षके सुखका पात्र हो गया। सच है, धर्मकी शरण ग्रहण कर सभी सुखो होते हैं। विष्णुदत्तके सिवा और भी बहुतेरे भव्यजन जैनधर्मका ऐसा प्रभाव देखकर जैनधर्मके प्रेमी हो गए और उस धनसे, जिसे देवीने मुनिके बालोंको रत्नोंके रूपमें बनाया था, कोटितीर्थ, नामका एक बड़ा ही सुन्दर जिनमन्दिर बनवा दिया, जिसमें धर्मसाधन कर भव्यजन सुख-शान्ति लाभ करते थे। जो बुद्धिरूपी धनके मालिक, बड़े विचारशील साधु-सन्त जिन भगवान्के द्वारा उपदेश किये, सारे संसारमें पूजे-माने जाने वाले, स्वर्ग-मोक्षके या और सब प्रकार सांसारिक सुखके कारण, संसारका भय मिटानेवाले ऐसे परम पवित्र तपको भक्तिसे ग्रहण करते हैं वे कभी नाश न होनेवाले मोक्षका सुखका लाभ करते हैं । ऐसे महात्मा योगीराज मुझे भी आत्मीक सच्चा सुख दें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy