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________________ १८ आराधना कथाकोश थी । वे अपना नित्य नैमित्तिक कर्म श्रद्धा के साथ करते, कभी उनमें विघ्न नहीं आने देते | इसके सिवा अपने विशाल राज्यका वे बड़ी नीतिके साथ पालन करते और सुखपूर्वक दिन व्यतीत करते । एक दिन सौधर्मस्वर्गका इन्द्र अपनी सभा में पुरुषोंके रूपसौन्दर्यकी प्रशंसा कर रहा था । सभामें बैठे हुए एक विनोदी देवने उनसे पूछाप्रभो ! जिस रूपगुणकी आप बेहद तारीफ कर रहे हैं, भला, ऐसा रूप भारतवर्ष में किसीका है भी या केवल यह प्रशंसा ही मात्र है ? उत्तर में इन्द्र ने कहा- हाँ, इस समय भी भारतवर्ष में एक ऐसा पुरुष है, जिसके रूपकी मनुष्य तो क्या देव भी तुलना नहीं कर सकते । उसका नाम है सनत्कुमार चक्रवर्ती । इन्द्रके द्वारा देव -- दुर्लभ सनत्कुमार चक्रवर्तीके रूपसौन्दर्यकी प्रशंसा सुनकर मणिमाल और रत्नचूल नामके दो देव चक्रवर्तीकी रूपसुधाके पानकी बढ़ी हुई लालसाको किसी तरह नहीं रोक सके । वे उसी समय गुप्त वेशमें स्वर्गधराको छोड़कर भारतवर्ष में आये और स्नान करते हुए चक्रवर्तीका वस्त्रालंकार रहित, पर उस हालत में भी त्रिभुवनप्रिय और सर्व सुन्दर रूपको देखकर उन्हें अपना शिर हिलाना ही पड़ा। उन्हें मानना पड़ा कि चक्रवर्तीका रूप वैसा ही सुन्दर है, जैसा इन्द्र ने कहा था और सचमुच यह रूप देवोंके लिये भी दुर्लभ है । इसके बाद उन्होंने अपना असली वेष बनाकर पहरेदारसे कहा तुम जाकर अपने महाराज से कहो कि आपके रूपको देखनेके लिये स्वर्गसे दो देव आये हुए हैं । पहरेदारने जाकर महाराज से देवोंके आनेका हाल कहा । चक्रवर्तीने इसी समय अपने श्रृंगार भवनमें पहुँचकर अपनेको बहुत अच्छी तरह वस्त्राभूषणोंसे सिंगारा | इसके बाद वे सिंहासनपर आकर बैठे और देवोंको राजसभा में आनेकी आज्ञा दी । देव राजसभामें आये और चक्रवर्तीका रूप उन्होंने देखा । देखते ही वे खेदके साथ बोल उठे, महाराज ! क्षमा कीजिये; हमें बड़े दुःखके साथ कहना पड़ता है कि स्नान करते समय वस्त्राभूषणरहित आपके रूपमें जो सुन्दरता, जो माधुरी हमने छुपकर देख पाई थी, वह अब नहीं रही । इससे जैनधर्मका यह सिद्धान्त बहुत ठोक है कि संसारकी सब वस्तुएँ क्षण-क्षण में परिवर्तित होती हैं - सब क्षणभंगुर हैं । देवोंकी विस्मय उत्पन्न करनेवाली बात सुनकर राजकर्मचारियों तथा और और उपस्थित सभ्योंने देवोंसे कहा- हमें तो महाराजके रूपमें पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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