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________________ कार्तिकेय मुनिकी कथा २८९ कार्तिकेयने तब पूछा - माँ वे गुणवान् मुनि कैसे होते हैं ? कृत्तिका बोली- बेटा ! वे शान्त रहते हैं, किसीसे लड़ते-झगड़ते नहीं । कोई दस गालियाँ भी उन्हें दे जाय तो वे उससे भी कुछ नहीं कहते और न क्रोध ही करते हैं। बेटा ! वे बड़े पण्डित होते हैं, उनके पास धन-दौलत तो दूर रहा, एक फूटी कौड़ी भी नहीं रहती । वे कभी कपड़े नहीं पहनते, उनका वस्त्र केवल यह आकाश है । चाहे कैसी ही ठण्ड या गर्मी पड़े, चाहे कैसी ही बरसात हो उनके लिए सब समान है । बेटा ! वे बड़े दयावान होते हैं, कभी किसी जीवको जरा भी नहीं सताते। इसी दयाको पूरी तौरसे पालने के लिए वे अपने पास सदा मोरके अत्यन्त कोमल पंखों की एक पीछी रखते हैं और जहाँ उठते-बैठते हैं, वहाँको जमीनको पहले उस पीछी से झाड़-पोंछकर साफ कर लेते हैं । उनके हाथमे लकड़ोका एक कमण्डलु होता है, जिसमें वे शौच वगैरहके लिए प्रासुक ( जीवरहित ) पानी रखते हैं। बेटा, उनकी चर्या बड़ी ही कठिन है । वे भिक्षा के लिये श्रावकों के यहाँ जाते हैं जरूर, पर कभी माँग कर नहीं खाते। किसीने उन्हें आहार नहीं दिया तो वे भूखे ही पीछे तपोवनमें लौट जाते हैं । वे आठ-आठ, पन्द्रहपन्द्रह दिन के उपवास करते हैं। बेटा, मैं तुझे उनके आचार-विचारकी बातें कहाँ तक बताऊँ । तू इतने में ही समझ ले कि संसारके सब साधुओं वे हो सच्चे साधु हैं। अपनी माता द्वारा जैन साधुओं की तारीफ सुनकर कार्तिकेय की उन पर बड़ी श्रद्धा हो गई । उसे अपने पिताके कार्यसे वैराग्य तो पहले ही हो चुका था, उस पर माता के इस प्रकार समझानेसे उसकी जड़ और मजबूत हो गई । वह उसी समय सब मोह ममता तोड़कर घरसे निकल गया और मुनियोंके स्थान तपोवनमें जा पहुँचा । मुनियोंका संघ देख उसे बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने बड़ी भक्ति से उन सब साधुओंको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दीक्षाके लिए उनसे प्रार्थना की। संघके आचार्यने उसे होनहार जान दीक्षा देकर मुनि बना लिया । कुछ दिनों में ही कार्तिकेय मुनि, आचार्य के पास शास्त्राभ्यास कर बड़े विद्वान् हो गए । कार्तिकेय की माताने पुत्र के सामने मुनियोंकी बहुत प्रशंसा की थी, पर उसे यह मालूम न था कि उसकी की हुई प्रशंसाका कार्तिकेय पर यह प्रभाव पड़ेगा कि वह दीक्षा लेकर मुनि बन जाय । इसलिए जब उसने जाना कि कार्तिकेय योगी बनना चाहता है, तो उसे बड़ा दुःख हुआ । वह कार्तिकेय के सामने बहुत रोई, गिड़गिड़ाई कि वह दीक्षा न ले, परन्तु कार्तिकेय अपने दृढ़ निश्चयसे विचलित नहीं हुआ और तपोवनमें जाकर साधु बन ही गया । कार्तिकेयकी जुदाईका दुःख सहना उसकी माँके लिये १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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