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________________ सुकोशल मुनिकी कथा २७३ दौड़ी और जब तक कि ये संन्यास लेकर बैठते हैं, उसने इन्हें खा लिया । ये पिता-पुत्र समाधिसे शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में जाकर देव हुए । वहाँसे आकर अब वे निर्वाण लाभ करेंगे। ये दोनों मुनिराज आप भव्यजनोंको और मुझे शान्ति प्रदान करें । जिस समय व्याघ्रीने सुकोशलको खाते-खाते उनका हाथ खाना शुरू किया, उस समय उसकी दृष्टि सुकोशलके हाथों के लाञ्छनों (चिह्नों) पर जा पड़ी। उन्हें देखते ही इसे अपने पूर्वजन्मका ज्ञान हो गया । जिसे वह खा रही है, वह उसीका पुत्र है, जिस पर उसका बेहद प्यार था, उसे ही वह खा रही है यह ज्ञान होते ही उसे जो दुःख, जो आत्मग्लानि हुई । वह लिखी नहीं जा सकती । वह सोचती है, हाय ! मुझसी पापिनी कौन होगी जो अपने ही प्यारे पुत्रको में आप हो खा रही हूँ ! धिक्कार है मुझसी मूर्खिनीको जो पवित्र धर्मको छोड़कर अनन्त संसारको अपना वास बनाती है । उस मोहको, उस संसारको धिक्कार है जिसके वश हो यह जीव अपने हित-अहित को भूल जाता है और फिर कुमार्ग में फँसकर दुर्गतियोंमें दुःख उठाता है । इस प्रकार अपने किये कर्मोंको बहुत कुछ आलोचना कर उस व्याघ्रीने संन्यास ग्रहण कर लिया और अन्त में शुद्ध भावोंसे मरकर वह सौधर्म स्वर्ग में देव हुई। सच है, जीवोंको शक्ति अद्भुत हो हुआ करती है और जैनधर्मका प्रभाव भी संसारमें बड़ा ही उत्तम है । नहीं तो कहाँ तो पापिनी व्याघ्री और कहाँ उसे स्वर्गकी प्राप्ति ! इसलिए जो आत्मसिद्धिके चाहनेवाले हैं, उन भव्य जनोंको स्वर्ग-मोक्षको देनेवाले पवित्र जैनधर्मका पालन करना चाहिए । श्री मूल संघरूपी अत्यन्त ऊँचे उदयाचल से उदय होनेवाले मेरे गुरु श्रीमल्लिभूषणरूपी सूर्य संसार में सदा प्रकाश करते रहें । वे प्रभाचन्द्राचार्य विजयलाभ करें जो ज्ञानके समुद्र हैं। देखिए, समुद्रमें रत्न होते हैं, आचार्य महाराज सम्यग्दर्शन रूपी श्रेष्ठ रत्नको धारण किये हैं। समुद्र में तरंगें होती हैं, ये भी सप्तभंगी रूपी तरंगोंसे युक्त हैं, स्याद्वाद विद्या बड़े ही विद्वान् हैं । समुद्रकी तरंगें जैसे कूड़ा-करकट निकाल बाहर फेंक देती हैं, इसी तरह ये अपनी सप्तभंगवाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकटको हटा दूर करते थे, अन्य मतोंके बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजयलाभ करते थे । समुद्र में मगरमच्छ घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं, पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि भया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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