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________________ २६५ सुकुमाल मुनिको कथा लगा । देखकर राजाको बड़ा अचम्भा हआ। उसने यशोभद्रासे इसका भी कारण पूछा। यशोभदाने कहा-राजराजेश्वर, इसे जो चावल खानेको दिये जाते हैं वे खिले हुए कमलोंमें रखे जाकर सुगन्धित किये होते हैं । पर आज वे चावल थोड़े होनेसे मैंने उन्हें दूसरे चावलोंके साथ मिलाकर बना लिया। इससे यह एक-एक चावल चुन-चुनकर खाता है। राजा सुनकर बड़े ही खुश हुए। उन्होंने पुण्यात्मा सुकुमालकी बहुत प्रशंसा कर कहासेठानीजो, अब तक तो आपके कुँवर साहब केवल आपके ही घर के सुकुमाल थे, पर अब मैं इनका अवन्ति-सूकूमाल नाम रखकर इन्हें सारे देशका सुकुमाल बनाता हूँ। मेरा विश्वास है कि मेरे देशभरमें इस सुन्दरताका इस सुकूमारताका यही आदर्श है । इसके बाद राजा सुकुमालको संग लिए महलके पीछे जलक्रीड़ा करने बावड़ी पर गये । सुकुमालके साथ उन्होंने बहुत देरतक जलक्रीड़ा को । खेलते समय राजाकी उँगलोमेंसे अँगूठो निकलकर कोड़ा सरोवरमें गिर गई। राजा उसे ढंढ़ने लगे । वे जलके भीतर देखते हैं तो उन्हें उसमें हजारों बड़े-बड़े सुन्दर और कीमती भूषण देख पड़े। उन्हें देखकर राजाको अकल चकरा गई। वे सुकुमालके अनन्त वेभवको देखकर बड़े चकित हए। वे यह सोचते हुए, कि यह सब पुण्यको लीला है, कुछ शरमिन्दासे होकर महल लौट आये । ___ सज्जनो, सुनो-धन-धान्यादि सम्पदाका मिलना, पुत्र, मित्र और सुन्दर स्त्रोका प्राप्त होना, बन्धु-बान्धवोंका सुखो होना, अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषणोंका होना, दुमजले, तिमंजले आदि मनोहर महलों में रहनेको मिलना, खाने-पीनेको अच्छीसे-अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होना, विद्वान् होना, नीरोग होना आदि जितनी सुख-सामग्री हैं, वह सब जिनेन्द्र भगवान्के उपदेश किये मार्ग पर चलनेसे जीवोंको मिल सकती हैं। इसलिए दुःख देने वाले खोटे मार्गको छोड़कर बुद्धिमानोंको सुखका मार्ग और स्वगमोक्षके सुखका बीज पुण्यकर्म करना चाहिए । पुण्य जिन भगवान् की पूजा करनेसे, पात्रोंको दान देनेसे तथा व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्यके धारण करनेसे होता है। एक दिन जैनतत्त्वके परम विद्वान् सुकुमालके मामा गणधराचार्य सुकुमालकी आयु बहुत थोड़ो रहो जानकर उसके महलके पोछेके बगीचेमें आकर ठहरे और चातुर्मास लग जानेसे उन्होंने वहीं योग धारण कर लिया। यशोभद्राको उनके आनेकी खबर हुई । वह जाकर उनसे कह आई कि प्रभो, जब तक आपका योग पूरा न हो तब तक आप कभी ऊँचेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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