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________________ सुकुमाल मुनिको कथा २५७ दिया। यह ठीक है कि मूल्का कहीं आदर-सत्कार नहीं होता । अपना अपमान हुआ देखकर इन दोनों भाइयोंको बड़ा दुःख हुआ। तब इनकी कुछ अकल ठिकाने आई। अब इन्हें कुछ लिखने-पढ़नेकी सूझी। ये राजगृहमें अपने काका सूर्यमित्रके पास गये और अपना सब हाल इन्होंने उनसे कहा । इनकी पढ़नेकी इच्छा देखकर सूर्यमित्रने स्वयं इन्हें पढ़ाना शुरू किया और कुछ ही वर्षों में इन्हें अच्छा विद्वान् बना दिया। दोनों भाई जब अच्छे विद्वान् हो गये तब ये पीछे अपने शहर लौट आये । आकर इन्होंने अतिबलको अपनी विद्याका परिचय कराया । अतिबल इन्हें विद्वान् देखकर बहुत खुश हुआ और इनके पिताका पुरोहित-पद उसने पोछा इन्हें ही दे दिया । सच है सरस्वती की कृपासे संसारमें क्या नहीं होता। एक दिन सन्ध्याके समय सूर्यमित्र सूर्यको अर्घ चढ़ा रहा था। उसकी अंगुलीमें राजकीय एक रत्नजड़ी बहुमूल्य अंगूठी थी। अर्घ चढ़ाते समय वह अंगूठी अंगुलीमेंसे निकलकर महलके नीचे तालाब में जा गिरी । भाग्यसे वह एक खिले हुए कमल में पड़ी । सूर्य अस्त होने पर कमल मुंद गया। अंगठी कमलके अन्दर बन्द हो गई जब वह पूजा पाठ करके उठा और उसकी नजर उँगली पर पड़ी तब उसे मालूम हुआ कि अंगूठी कहीं पर गिर पड़ी । अब तो उसके डरका कुछ ठिकाना न रहा । राजा जब अंगूठी मांगेगा तब उसे क्या जवाब दूंगा, इसकी उसे बड़ी चिन्ता होने लगी। अंगठेको शोधके लिये इसने बहुत कुछ यत्न किया, पर इसे उसका कुछ पता न चला। तब किसीके कहनेसे यह अवधिज्ञानी सूधर्म मनिके पास गया और हाथ जोड़कर इसने उनसे अंगठीके बाबत पूछा कि प्रभो, क्या कृपा कर मझे आप यह बतलावेंगे कि मेरी अंगठी कहाँ चली गई और हे करुणाके समुद्र, वह कैसे प्राप्त होगी ? मुनिने उत्तरमें यह कहा कि सर्यको अर्घ देते समय तालाबमें एक खिले हुए कमलमें अंगठी गिर पड़ी है। वह सबेरे मिल जायेगी। वही हुआ। सूर्योदय होते ही जैसे कमल खिला सूर्यमित्रको उसमें अँगूठी मिली। सर्यमित्र बड़ा खुश हुआ। उसे इस बातका बड़ा अचम्भा होने लगा कि मुनिने यह बात कैसे बतलाई ? हो न हो, उनसे अपने को भी यह विद्या सोखनी चाहिये । यह विचार कर सूर्यमित्र, मुनिराजके पास गया। उन्हें नमस्कार कर उसने प्रार्थना की कि हे योगिराज, मझे भी आप अपनी विद्या सिखा दीजिये, जिससे मैं भी दसरेके ऐसे प्रश्नोंका उत्तर दे सकें। आपको मुझ पर बड़ी कृपा होगी, यदि आप मुझे अपनी यह विद्या पढ़ा देंगे। तब मुनिराजने कहा-भाई, मुझे इस विद्याके सिखानेमें कोई इंकार नहीं है। पर बात यह है कि बिना www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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