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________________ सगर चक्रवर्तीकी कथा २४७ भगवान्के दर्शन करनेको आया था। सगरको आया देख मणिकेतुने उससे कहा-क्यों राजराजेश्वर, क्या अच्युत स्वर्गकी बात याद है ? जहाँ कि तुमने और मैंने प्रेमके वश हो प्रतिज्ञा की थी कि जो हम दोनोंमेंसे पहले मनुष्य जन्म ले उसे स्वर्गका देव जाकर समझावे और संसारसे उदासीन कर तपस्याके सम्मुख करे। अब तो आपने बहुत समय तक राज्य-सुख भोग लिया । अब तो इसके छोड़नेका यत्न कीजिये। क्या आप नहीं जानते कि ये विषय-भोग दुःखके कारण और संसारमें घुमानेवाले हैं ? राजन्, आप तो स्वयं बुद्धिमान् हैं। आपको मैं क्या अधिक समझा सकता है। मैंने तो सिर्फ अपनी प्रतिज्ञा-पालनके लिए आपसे इतना निवेदन किया है । मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन क्षग-भंगुर विषयोंसे अपनी लालसाको कम करके जिन भगवान्का परम पवित्र तपोमार्ग ग्रहण करेंगे और बड़ी सावधानीके साथ मुक्ति कामिनीके साथ ब्याहकी तैयारी करेंगे। मणिकेतने उसे बहुत कुछ समझाया पर पुत्रमोही सगरको संसारसे नाममात्रके लिये भी उदासीनता न हुई। मणिकेतुने जब देखा कि अभी यह पुत्र, स्त्री, धन-दौलतके मोहमें खूब फँस रहा है। अभी इसे संसारसे विषयभोगोंसे उदासोन बना देना कठिन ही नहीं किन्तु एक प्रकार असंभवको संभव करनेका यत्न है। अस्तु, फिर देखा जायगा। यह विचार कर मणिकेतु अपने स्थान चला गया। सच है, काललब्धिके बिना कल्याण हो भी तो नहीं सकता। कुछ समय के बाद मणिकेतुके मनमें फिर एक बार तरंग उठो कि अब किसी दूसरे प्रयत्न द्वारा सगरको तपस्याके सम्मुख करना चाहिए तब वह चारण मुनिका वेष लेकर, जो कि स्वर्ग-मोक्षके सुखका देनेवाल है, सगरके जिन मन्दिर में आया और भगवानका दर्शन कर वहीं ठह गया। उसको नई उमर और सुन्दरताको देखकर सगरको बड़ा अचम्भ हुआ। उसने मुनिरूप धारण करनेवाले देवसे पूछा, मुनिराज, आप इस नई उमरने, जिसने कि संसारका अभी कुछ सुख नहीं देखा, ऐसे कठि योगको किसलिए धारण किया ? मुझे तो आपको योगी हुए देखकर बर ही आश्चर्य हो रहा है। तब देवने कहा-राजन्, तुम कहते हो, वह ठो है। पर मेरा विश्वास है कि संसारमें सुख है ही नहीं। जिधर मैं आ खोलकर देखता हूँ मुझे दुःख या अशान्ति ही देख पड़ती है। यह जवा बिजलीकी तरह चमककर पलभरमें नाश होनेवाली है। यह शरीर, Gि कि तुम भोगोंमें लगानेको कहते हो, महा अपवित्र है। ये विषय-भे जिन्हें तुम सुखरूप समझते हो, सर्पके समान भयंकर हैं और यह संस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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