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________________ २०६ आराधना कथाकोश उन पर बड़ी भक्ति हो गई। वह दौड़ा जाकर झटसे घड़ेको निकाल लाया और अपने पिता के सामने उसे रखकर जरा गुस्से से बोला- हाँ देखता हूँ आप मुनिराज पर अब कितना उपसर्ग करते हैं ? यह देखकर जिनदत्त बड़ा शरमिन्दा हुआ । उसने अपने भ्रम भरे विचारों पर बड़ा ही पछतावा किया । अन्त में दोनों पिता-पुत्रोंने उन मेरुके समान स्थिर और तपके खजाने मुनिराज के पाँवों में पड़कर अपने अपराधकी क्षमा कराई और संसारसे उदासीन होकर उन्हींके पास उन्होंने दीक्षा भी ले ली, जो कि मोक्ष सुखकी देनेवाली है। दोनों पिता-पुत्र मुनि होकर अपना कल्याण करने लगे और दूसरोंको भो आत्मकल्याणका मार्ग बतलाने लगे । वे साधुरत्न मुझे सुख-शान्ति दें, जो भगवान् के उपदेश किये सम्यग्ज्ञानके उमड़े हुए समुद्र हैं, सम्यक्त्वरूपी रत्नोंको धारण किये हैं, और पवित्र शील जिसकी लहरें हैं। ऐसे मुनिराजोंको में भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । 1 मूलसंघके मुख्य चलानेवाले श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामें भट्टारक मल्लभूषण हुये हैं । वे मेरे गुरु हैं, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धारण किये हैं और गुणोंकी खान हैं । वे आप लोगोंका कल्याण करें । ४२. पिण्याकगन्धकी कथा सुख देनेवाले और सारे संसारके प्रभु श्रीजिनेन्द्र भगवान्‌को नमस्कार कर धनलोभी पिण्याकगन्धकी कथा लिखी जाती है । रत्नप्रभ कांपिल्य नगर के राजा थे। उनकी रानी विद्युत्प्रभा थी । वह सुन्दर और गुणवती थी । यहीं एक जिनदत्त सेठ रहता था । जिनधर्म पर इसकी गाढ़ श्रद्धा थी । अपने योग्य आचार-विचार इसके बहुत अच्छे थे । राजदरबार में भी इसकी अच्छी पूछ थी, मान-मर्यादा थी । यहीं एक और सेठ था। इसका नाम पिण्याकगन्ध था । इसके पास कई करोड़का धन था, पर तब भी यह मूर्ख बड़ा ही लोभी था, कृपण था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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