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________________ १८२ आराधना कथाकोश तुम अच्छी तरह तो हो न ? मुनि द्वारा अपना नाम सुनकर चारुदत्तको कुछ सन्तोष तो इसलिए अवश्य हुआ कि एक अत्यन्त अपरिचित देश में उसे कोई पहचानता भी है, पर इसके साथ ही उसके आश्चर्यका भी कुछ ठिकाना न रहा । वह बड़े विचार में पड़ गया कि मैंने तो कभी इन्हें कहीं देखा नहीं, फिर इन्होंने ही मुझे कहाँ देखा था ! अस्तु, जो हो, इन्हींसे पूछता हूँ कि ये मुझे कहाँसे जानते हैं । वह मुनिराज से बोला- प्रभो, मालूम होता है आपने मुझे कहीं देखा है, बतलाइए तो आपको मैं कहाँ मिला था ? मुनि बोले - "सुनो, में एक विद्याधर हूँ ! मेरा नाम अमितगति है । एक दिन मैं चम्पापुरोके बगीचे में अपनी प्रियाके साथ सैर करनेको गया हुआ था । इसी समय एक धूमसिंह नामका विद्याधर वहाँ आ गया । मेरी सुन्दर स्त्रोको देखकर उस पापीकी नियत डगमगी | कामसे अन्धे हुए उस पापीने अपनी विद्याके बलसे मुझे एक वृक्ष में कील दिया और मेरी प्यारीको विमानमें बैठाकर मेरे देखते-देखते आकाश मार्ग चल दिया । उस समय मेरे कोई ऐसा पुण्यकर्मका उदय आया सो तुम उधर आ निकले । तुम्हें दयावान समझकर मैंने तुमसे इशारा करके कहावे औषधियाँ रक्खी हैं, उन्हें पीसकर मेरे शरीर पर लेप दीजिए। आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर वैसा ही किया । उससे दुष्ट विद्याओंका प्रभाव नष्ट आ और मैं उन विद्याओंके पंजेसे छूट गया । जैसे गुरुके उपदेशसे जीव, माया, मिथ्याकी कोलसे छूट जाता है । मैं उसी समय दौड़ा हुआ कैलास पर्वतपर पहुँचा और धूमसिंहको उसके कर्मका उचित प्रायश्चित्त देकर उससे अपनी प्रियाको छुड़ा लाया। फिर मैंने आपसे कुछ प्रार्थना की कि आप जो इच्छा हो वह मुझसे माँगें, पर आप मुझसे कुछ भी लेनेके लिए तैयार नहीं हुए । सच तो यह है कि महात्मा लोग दूसरोंका भला किसी प्रकार की आशासे करते ही नहीं । इसके बाद मैं आपसे विदा होकर अपने नगर में आ गया। मैंने इसके पश्चात् कुछ वर्षोंतक और राज्य किया, राज्यश्रीका खूब आनन्द लूटा | बाद आत्मकल्याणको इच्छा से पुत्रोंको राज्य सौंपकर मैं दीक्षा ले गया, जो कि संसारका भ्रमण मिटानेवाली है । चारणऋद्धिके प्रभावसे मैं यहाँ आकर तपस्या कर रहा हूँ । मेरा तुम्हारे साथ पुराना परिचय है, इसीलिए मैं तुम्हें पहचानता हूँ ।" सुनकर चारुदत्त बहुत खुश हुआ। वह जब तक वहाँ बैठा रहा, इसो बीचमें इन मुनिराजके दो पुत्र इनकी पूजा करनेको वहाँ आये । मुनिराज - ने चारुदत्तका कुछ हाल उन्हें सुनाकर उसका उनसे परिचय कराया । परस्परमें मिलकर इन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़े हो समयके परिचय - से इनमें अत्यन्त प्रेम बढ़ गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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